जाति व्यवस्था पर निबंध (Caste System Essay in Hindi)

जाति व्यवस्था एक सामाजिक बुराई है जो प्राचीन काल से भारतीय समाज में मौजूद है। वर्षों से लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं लेकिन फिर भी जाति व्यवस्था ने हमारे देश के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखी है। भारतीय समाज में सदियों से कुछ सामाजिक बुराईयां प्रचलित रही हैं और जाति व्यवस्था भी उन्हीं में से एक है। हालांकि, जाति व्यवस्था की अवधारणा में इस अवधि के दौरान कुछ परिवर्तन जरूर आया है और इसकी मान्यताएं अब उतनी रूढ़िवादी नहीं रही है जितनी पहले हुआ करती थीं, लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी देश में लोगों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर असर डाल रही है।

जाति व्यवस्था पर छोटे तथा बड़े निबंध (Short and Long Essay on Caste System in Hindi, Jati Vyavastha par Nibandh Hindi mein)

निबंध 1 (250 शब्द)

भारत में जाति व्यवस्था लोगों को चार अलग-अलग श्रेणियों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – में बांटती है। यह माना जाता है कि ये समूह हिंदू धर्म के अनुसार सृष्टि के निर्माता भगवान ब्रह्मा के द्वारा अस्तित्व में आए। पुजारी, बुद्धिजीवी एवं शिक्षक ब्राह्मणों की श्रेणी में आते हैं और वे इस व्यवस्था में शीर्ष पर हैं और यह माना जाता है कि वे ब्रह्मा के मस्तक से आए है।

इसके बाद अगली पंक्ति में क्षत्रिय हैं जो शासक एवं योद्धा रहे हैं और यह माना जाता है कि ये ब्रहमा की भुजाओं से आए। व्यापारी एवं किसान वैश्य वर्ग में आते हैं और यह कहा जाता है कि ये उनके जांघों से आए और श्रमिक वर्ग जिन्हें शूद्र कहा जाता है वे चौथी श्रेणी में हैं और ये ब्रह्मा के पैरों से आये हैं ऐसा वर्ण व्यवस्था के अनुसार माना जाता है।

इनके अलावा एक और वर्ग है जिसे बाद में जोड़ा गया है उसे दलितों या अछूतों के रूप में जाना जाता है। इनमें सड़कों की सफाई करने वाले या अन्य साफ-सफाई करने वाले क्लीनर वर्ग के लोगों को समाहित किया गया। इस श्रेणी को जाति बहिष्कृत माना जाता था।

ये मुख्य श्रेणियां आगे अपने विभिन्न पेशे के अनुसार लगभग 3,000 जातियों और 25,000 उप जातियों में विभाजित हैं।

मनुस्मृति, जो हिंदू कानूनों का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, के अनुसार, वर्ण व्यवस्था समाज में आदेश और नियमितता स्थापित करने के लिए अस्तित्व में आया। यह अवधारणा 3000 साल पुरानी है ऐसा कहा जाता है और यह लोगों को उनके धर्म (कर्तव्य) एवं कर्म (काम) के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करता है।

देश में लोगों का सामाजिक एवं धार्मिक जीवन सदियों से जाति व्यवस्था की वजह से काफी हद तक प्रभावित रहा है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है जिसका राजनीतिक दल भी अपने-अपने हितों को साधने में दुरूपयोग कर रहे हैं।


निबंध 2 (300 शब्द)

जाति व्यवस्था अति प्राचीन काल से हमारे देश में प्रचलित रही है और साथ ही समाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने में कामयाब रही है। लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – चार अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

ऐतिहासिक दृष्टि से यह माना जाता है कि देश में लगभग 1500 ईसा पूर्व में आर्यों के आगमन के साथ यह सामाजिक व्यवस्था अस्तित्व में आयी। यह कहा जाता है कि आर्यों ने उस समय स्थानीय आबादी को नियंत्रित करने के लिए इस प्रणाली की शुरुआत की। सब कुछ व्यवस्थित करने के लिए उन्होंने सबकी मुख्य भूमिकाएं तय की और उन्हें लोगों के समूहों को सौंपा। हालांकि, 20वीं सदी में यह कहते हुए कि आर्यों ने देश पर हमला नहीं किया,  इस सिद्धांत को खारिज कर दिया गया।

हिंदू धर्मशास्त्रियों के अनुसार, यह कहा जाता है कि यह प्रणाली हिंदू धर्म में भगवान ब्रह्मा, जिन्हें ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में जाना जाता है, के साथ अस्तित्व में आयी। इस सिद्धांत के अनुसार समाज में पुजारी एवं और शिक्षक वर्ग ब्रह्मा के सिर से आए और दूसरी श्रेणी के लोग जो क्षत्रियो हैं वे भगवान की भुजाओं से आए। तीसरे वर्ग से संबंधित लोग अर्थात  व्यापारियों के बारे में कहा गया कि वे भगवान की जांघों और किसान एवं मजदूर ब्रह्मा के पैरों से आए हैं।

जाति व्यवस्था का वास्तविक उद्गम इस प्रकार अभी तक ज्ञात नहीं है। मनुस्मृति, हिंदू धर्म का एक प्राचीन ग्रंथ है और इसमें 1,000 ईसा पूर्व में इस प्रणाली का हवाला दिया गया है। प्राचीन समय में, सभी समुदाय इस वर्ग प्रणाली का कड़ाई से पालन करते थे। इस प्रणाली में उच्च वर्ग के लोगों ने कई विशेषाधिकार का लाभ उठाया और दूसरी तरफ निम्न वर्ग के लोग कई लाभों से वंचित रहे हैं। हालांकि आज की स्थिति पहले के समय जैसा कठोर नहीं है लेकिन, आज भी जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है।

Caste System Essay

निबंध 3 (400 शब्द)

भारत प्राचीन काल से जाति प्रथा की बुरी व्यस्था के चंगुल में फंसा हुआ है। हालांकि, इस प्रणाली के उद्गम की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है और इस वजह से विभिन्न सिद्धांत, जो अलग-अलग कथाओं पर आधारित हैं, प्रचलन में हैं। वर्ण व्यवस्था के अनुसार मोटे तौर पर लोगों को चार अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया। यहाँ इन श्रेणयों के अंतर्गत आने वाले लोगों के बारे में बताया जा रहा है। इन श्रेणियों में से प्रत्येक के अंतर्गत आने वाले लोग निम्न प्रकार से है।:

  1. ब्राह्मण – पुजारी, शिक्षक एवं विद्वान
  2. क्षत्रिय – शासक एवं योद्धा
  3. वैश्य – किसान, व्यापारी
  4. शूद्र – मजदूर

वर्ण व्यवस्था बाद में जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया और समाज में जन्म के आधार पर निर्धारित होने वाली 3,000 जातियां एवं समुदाय थीं जिन्हें आगे 25,000 उप जातियों में विभाजित किया गया था।

एक सिद्धांत के अनुसार, देश में वर्ण व्यवस्था की शुरूआत लगभग 1500 ईसा पूर्व में आर्यों के आगमन के पश्चात हुई। यह कहा जाता है कि आर्यों ने इस प्रणाली की शुरूआत लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने एवं अधिक प्रक्रिया को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए की थी। उन्होंने लोगों के विभिन्न समूहों के लिए अलग-अलग भूमिकाएं सौंपी। हिंदू धर्मशास्त्रियों के अनुसार इस प्रणाली की शुरूआत भगवान ब्रह्मा, जिन्हें ब्रह्मांड के रचयिता के रूप में जाना जाता है, के साथ शुरू हुई।

जैसे ही वर्ण व्यवस्था जाति प्रथा में बदल गई जातिगत आधार पर भेदभाव की शुरूआत हो गई। उच्च जाति के लोग महान माने जाते थे और उनके साथ सम्मान से पेश आया जाता था और उन्हें कई विशेषाधिकार भी प्राप्त थे। वहीं दूसरी तरफ निम्न वर्ग के लोगों को कदम-कदम पर अपमानित किया गया और कई चीजों से वंचित रहते थे। अंतर्जातीय विवाहों की तो सख्त मनाही थी।

शहरी भारत में जाति व्यवस्था से संबंधित सोच में आज बेहद कमी आई है। हालांकि, निम्न वर्ग के लोगों को आज भी समाज में सम्मान न के बराबर ही मिल पा रहा है जबकि सरकार द्वारा उन्हें कई लाभ प्रदान किए जा रहे हैं। जाति देश में आरक्षण का आधार बन गया है। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों के लिए शिक्षा एवं सरकारी नौकरी के क्षेत्र में एक आरक्षित कोटा भी प्रदान किया जाता है।

अंग्रेजों के जाने के बाद, भारतीय संविधान ने जाति व्यवस्था के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कोटा प्रणाली की शुरूआत की गई। बी आर अम्बेडकर जिन्होंने भारत का संविधान लिखा वे खुद भी एक दलित थे और दलित एवं समाज के निचले सोपानों पर अन्य समुदायों के हितों की रक्षा के लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा को भारतीय इतिहास में एक बड़ा कदम माना गया था, हालांकि अब विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा संकीर्ण राजनीतिक कारणों से इसका दुरुपयोग भी किया जा रहा है।