कुंभ मेला

कुंभ मेला

कुंभ मेला हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है। इस पर्व पर करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु कुंभ स्थलों पर स्नान करते है। कुंभ मेले की ज्योतिष गणना बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने के पर की जाती है। यह पर्व विभिन्न वर्षो की विभिन्न तिथियों को भारत के हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक जैसे चार स्थानों पर आयोजित किये जाते है।

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प्रयाग को छोड़कर बाकी सभी स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्ष में कुभ स्नान का आयोजन किया जाता है, प्रयाग में 12 वर्ष के अंतराल में 2 कुंभ आयोजित किये जाते है। जिसमें पहले छह वर्ष वाले कुंभ को अर्धकुंभ तथा बारह वर्ष में आयोजित होने वाले कुंभ को पूर्ण कुंभ के नाम से जाना जाता है।

कुंभ मेला 2025 (Kumbh Mela 2025)

कुंभ मेला वर्ष 2025 में 13 जनवरी से शुरू होकर और 26 फरवरी को समाप्त होगा।

कुम्भ मेला कहाँ कहाँ लगता है?

भारत के चार स्थानों पर कुंभ मेले का पर्व मनाया जाता है, प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक भारत के वो चार स्थान हैं जहा कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुंभ मेला क्यों मनाया जाता है? (Why Do We Celebrate Kumbh Mela)

कुंभ हिंदू धर्म के प्रमुख पर्वों में से एक है, इसकी उत्पत्ति को लेकर ऐतिहासिक रुप से कोई विशेष जानकारी नही मिलती है, लेकिन यदि भारतीय इतिहास पर गौर किया जाये तो पता चलता है कि भारत में कुंभ स्नान का पर्व लगभग 600 ई.पू. समयकाल से ही मनाया जा रहा है। हालांकि इस पर्व को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है और इसी के ज्योतिष गणना के आधार पर मकर संक्रांति के दिन कुंभ का यह पर्व मनाया जाता है।

कुंभ के उत्पत्ति की यह कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। जिसके अनुसार, जब महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण इंद्र और देवता शक्तिहीन हो गये थे, तो उनकी इस दुर्बलता का फायदा उठाते हुए असुरों ने स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित करके उन्हें स्वर्गलोक से निष्काषित कर दिया। तब इंद्र सहित सब देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उन्हें अपनी यह व्यथा बताई।

इस पर भगवान विष्णु ने इंद्र से कहा कि वे दैत्यों से संधि कर ले और उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करके अमृत प्राप्त कर उसका पान करे जिससे वह अपनी शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगें तथा अमर हो जायेंगे। समुद्र मंथन के पश्चात अमृत निकलते ही देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र ‘जयंत’ अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ गये।

तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेश पाकर राक्षसों ने अमृत लाने के लिए जयंत का पीछा किया और काफी मेहनत के बाद उन्हें रास्ते में पकड़ लिया और इसके पश्चात अमृत कशल को पाने के लिए दैत्यों और देवों में 12 दिनों तक संघर्ष होता रहा। उस वक्त देवताओं और दावनों के आपसी युद्ध में अमृत कलश की चार बूंदें पृथ्वी पर भी गिरी थी।

अमृत की पहली बूंद प्रयाग में गिरी, दूसरी बूंद हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन में तथा चौथी बूंद नासिक में गिरी। यहीं कारण है कि इन चार स्थलों में कुंभ का यह पवित्र पर्व मनाया जाता है क्योंकि देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के बराबर होते हैं इसलिए कुंभ का यह पवित्र पर्व 12 वर्ष के अंतराल पर मनाया जाता है।

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कुंभ मेला कैसे मनाया जाता है – रिवाज एवं परंपरा (How Do We Celebrate Kumbh Mela – Custom and Tradition of Kumbha Mela)

कुंभ मेले के आयोजन का इतिहास काफी प्राचीन है विद्वानों का ऐसा मानना है कि भारत में कुंभ का पर्व यह पर्व लगभग 600 ई.पू. से भी पहले से मनाया जा रहा है। इतिहासकारों का मानना है कि कुंभ के वर्तमान स्वरुप का आरंभ उज्जैन के प्रतापी राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में हुई थी।

इस पर्व में जुटने वाली भीड़ को देखते हुए कुंभ आयोजन स्थान पर महिनों पहले से ही तैयारी शुरु कर दी जाती है। कुंभ मेले के दौरान आयोजन स्थल पर इन 50 दिनों में लगभग मेले जैसा माहौल रहता है और करोड़ों के तादाद में श्रद्धालु इस पवित्र स्नान में भाग लेने के लिए पहुंतते है।

मकर संक्रांति के दिन आरंभ होने वाले कुंभ मेले की शुरुआत हमेशा अखाड़ों की पेशवाई के साथ होती है। आखाड़ों के इस स्नान को शाही स्नान भी कहते हैं। प्रयागराज में आयोजित होने वाले कुंभ को छोड़कर बाकी सभी तीन कुंभ 12 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होते है। इसके साथ ही 12 पूर्ण कुंभों के बाद प्रत्येक 144 वर्ष में एक महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।

कुंभ स्नान की प्रमुख तिथियां (Important Dates of Kumbh Snan)

वैसे तो कुंभ मेले में स्नान का यह पर्व मकर संक्रांति से शुरु होकर अगले पचास दिनों तक चलता है, लेकिन इस कुंभ स्नान में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण ज्योतिष तिथियां होती हैं, जिनका विशेष महत्व होता है, यहीं कारण है कि इन तिथियों को स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु तथा साधु इकठ्ठे होते हैं। ये महत्वपूर्ण तिथियां निम्नलिखित है-

मकर संक्रांति – इस दिन पहले शाही स्नान का आयोजन होता है

पौष पुर्णिमा

मौनी अमवस्या – इस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन होता है

बसंत पंचमी – इस दिन तीसरे शाही स्नान का आयोजन होता है

माघ पूर्णिमा

महाशिवरात्रि – यह कुंभ पर्व का आखिरी दिन होता है

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शाही स्नान

कुंभ मेले की शुरुआत शाही स्नान के साथ होती है। जहां पर कई सारे साधु संत आयोजित कुंभ स्थल के पवित्र नदी में डुबकी लगाते हैं। शाही स्नान कुंभ मेले का एक प्रमुख हिस्सा है, शाही स्नान की तारीखें पहले ही घोषित कर दी जाती हैं। इस स्नान में सभी तेरह अखाड़ों के शाही स्नान का क्रम निर्धारित होता है और उनसे पहले कोई भी स्नान के लिए नदी में नही उतर सकता है। कई बार तो शाही स्नान को लेकर साधुओं में भीषण संघर्ष और झड़प भी हो जाती है।

शाही स्नान की इस परंपरा का आरंभ काफी बाद में हुआ। ऐसा माना जाता है कि शाही स्नान के इस परंपरा की शुरुआत 14वीं से 16वीं शताब्दी के बीच हुई थी। यह वह समय था, जब भारत पर एक के बाद एक विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण शुरु हो गये थे। समय बितने के साथ अपने धर्म पर आघात देख साधु काफी उग्र होने लगे और उन्होंने मुस्लिम शासकों से धर्म के रक्षा के लिए लोहा लेना शुरु कर दिया। नागा साधुओं के इस युद्ध कौशल को देखकर कई सारे शासकों ने उन्हें अपने सेनाओं में विशेष स्थान दिया।

स्वयं मुस्लिम शासकों ने कई बार नागा साधुओं की युद्ध में सहायता ली और उनके इस सहायता के बदले उन्हें विशेष सम्मान देते हुए, उन्हें साधरण लोगों से पहले स्नान करने का अवसर देने का निश्चय लिया। इसके साथ ही इन नागा साधुओं के प्रमुखों को राजाओं के तरह स्नान स्थल में पालकी व रथ पर ले जाया जाने लगा। इसकी इसी भव्यता और राजसी ठाठ-बाट के कारण इस स्नान का नाम शाही स्नान पड़ गया।

शाही स्नान के दौरान साधु-संत हाथी-घोड़ो सोने-चांदी की पालकियों पर बैठकर स्नान करने के लिए आते हैं। यह स्नान ए खास मुहूर्त पर होता है, जिसपर सभी साधु तट पर इकट्ठा होते हैं और जोर-जोर से नारे लगाते हैं। माना जाता है कि इस मुहूर्त में नदी के अंदर डुबकी लगाने से अमरता प्राप्त हो जाती है। यह मुहूर्त करीब 4 बजे शुरु हो जाता है। साधुओं के बाद आम जनता को स्नान करने का अवसर दिया जाता है।

कुंभ मेले की आधुनिक परंपरा  (Modern Tradition of Kumbh Mela)

वर्तमान काल में कुंभ मेले में कई सारे परिवर्तन हुए हैं। जिसमें से ज्यादेतर परिवर्तन काफी अच्छे हैं तथा इन्होंने कुंभ के पर्व की महत्ता को और भी बढ़ाने का कार्य किया है। पहले के समय में कुंभ मेले आयोजन बहुत ही अव्यवस्थित तरीके से होता था और कोई नियम-कानून ना होने के कारण पहले स्नान को लेकर साधुओं में कई बार खूनी संघर्ष हो जाते थे। जिसके कारण साधुओं के साथ ही कई सारे आम लोगों को भी अपनी जान गवानी पड़ जाती थी।

19वीं शताब्दी में अग्रेंजों द्वारा कुंभ मेले के व्यवस्था को लेकर कई सारे सुधार किये गये। जिसमें साफ-सफाई तथा व्यवस्था नियंत्रण जैसे कई सारे महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। आज के समय में आयोजित होने वाले कुंभ मेलों में सुरक्षा, साफ-सफाई तथा यातायात की काफी व्यवस्था रहती है। इसके साथ ही शाही स्नान का क्रम भी तय रहता है जिससे की साधुओं में किसी प्रकार का भी आपसी संघर्ष ना हो।

कुंभ मेला का इतिहास (History of Kumbh Mela)

कुंभ का इतिहास काफी प्राचीन है इतिहासकारों का मानना है कि यह पर्व लगभग 600 वर्ष ई.पू. से भी मनाया जा रहा है। इसके वर्तमान रुप की शुरुआत राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में हुई थी। इस त्योहार के उत्पत्ति को लेकर कई सारे ऐतिहासिक तथा पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। कुंभ मेले उत्पत्ति की सबसे पहली कथा का वर्णन हिंदू धर्म के पुराणों में मिलता है।

इसक कथा के अनुसार, जब दुर्वाषा ऋषि के श्राप के कारण देवराज इंद्र शक्तिहीन हो गये थे। तब दैत्यराज बलि के नेतृत्व में दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर देवताओं को परास्त कर दिया और उन्हें स्वर्ग से खदेड़कर वहा अपना अधिपत्य जमा लिया। तब सभी देवतागण सहायता के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे और अपनी सारी विपदा उन्हें सुनाई।

तब भगवान विष्णु बोले आप देवताओं के लिए सही नही है और आप इस समय को मैत्रीपूर्ण रुप से व्यतीत कर दे। इसके साथ ही उन्होंने देवताओं को सलाह दी की वे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर में समुद्र मंथन करें तथा इसमें से निकलने वाले अमृत का पान करके अमर होकर अपनी शक्तियों को पुनः प्राप्त करें।

तब देवताओं ने भगवान विष्णु की बात मानकर दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया। जब समुद्र मंथन के अंत में धन्वतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवताओं का इशारा पाकर इंद्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ गये। इशके पश्चात दैत्यगुरु शुक्राचार्य का इशारा पाकर दैत्य जयंत का पीछा करने लगे और काफी कठिनाई के बाद उन्हें पकड़ा।

इस घटना के बाद देवताओं और असुरों में अमृत कशल की प्राप्ति को लेकर बारह दिन तक युद्ध होता रहा, इस दौरान अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी गीरी और यह बूंदें जिन चार स्थानों पर गिरी वर्तमान में उन्हीं चार स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है क्योंकि देवताओं के बारह दिन पृथ्वी के बारह वर्ष के समान होते हैं। यही कारण है कि कुंभ का यह पर्व 12 वर्ष में मनाया जाता है।

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