“वह भारत के युवाओं की वीरता के प्रतीक थे। एक कान्तिकारी, जिसने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी देने के लिये विधानमंडल के सत्र के दौरान बम फेंक दिया। उन्हें मार दिया गया पर वह देशवासियों के दिलों में हमेशा जीवित रहेंगें।”
-ईश्वरचन्द्र
भगत सिंह एक ऐसा नाम जिसे किसी भी परिचय की आवश्यकता ही नहीं है। इस क्रान्तिकारी युवा के नाम से भारत की हर एक पीढ़ी अवगत है। जिनके महान कार्यों से आज भी भारत के नौ जवान प्रेरित होते हैं और उनकी प्रेरणा के आधार पर कार्य करते है। भगत सिंह एक महान क्रान्तिकारी थे, जिनका नाम सुनते ही अंग्रेज अधिकारियों के पसीने छूट जाते थे। भारत माँ के वीर सपूत जिन्होंने हँसते-हँसते भारत माँ की आजादी के लिये अपने प्राणों की कुर्बानी दे दी। इन्होंने अपने जीते जी अंग्रेज अधिकारियों की नाक में दम कर रखा था। वो ईंट का जबाव पत्थर से देने के सिद्धान्त को मानते थे और उसका पालन भी करते थे।
भगत सिंह (28 सितम्बर 1907 – 23 मार्च 1931)
मुख्य तथ्यः–
जन्मः– 28 सितम्बर 1907
जन्म स्थानः– गाँव–बावली,जिला–लायलपुर,पंजाब (वर्तमान में पाकिस्तान में)
माता-पिताः– सरदार किसान सिंह साधु (पिता) व विद्यावती (माता)
भाईः– जगत सिंह, कुलवीर सिंह, कुलतार सिंह, राजेन्द्र सिंह, रनवीर सिंह
बहनः– बीबी अमर कौर, बीबी शकुन्तला, बीबी प्रकाश कौर
शिक्षाः– नेशनल कॉलेज लाहौर, दयानन्द अंग्लो-वैदिक स्कूल
प्रमुख संगठनः– नौजवान भारत सभा, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियेशन, अभिनव भारत
उपलब्धियाँ:– भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को नयी दिशा दी, पंजाब में क्रान्तिकारी संदेश फैलाने के लिये नौजवान भारत सभा (मार्च,1926) की स्थापना, भारत को गणराज्य बनाने के लिये चन्द्रशेखर आजाद के साथ हिन्दूस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ की स्थापना, साण्डर्स द्वारा लाला लाजपत राय को मारने का बदला लेने के लिये साण्डर्स की हत्या, विधानमंडल में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम विस्फोट।
मृत्युः– 23 मार्च 1931, लाहौर जेल (पाकिस्तान)
भारत माँ के वीर सपूत भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 में पंजाब के लायलपुर जिले के बावली या बंगा नामक गाँव (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। इनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था। इनका परिवार आर्य समाज से जुड़ा हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।
इनके 5 भाई थे और 3 बहनें थी जिसमें सबसे बड़े भाई जगत सिंह की मृत्यु 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही हो गयी थी। अपने सभी भाई बहनों में भगत सिंह सबसे प्रखर, तेज और विलक्षण बुद्धि के स्वामी थे। भगत सिंह का परिवार पहले से ही देश भक्ति के लिये जाना जाता था। इनके पिता के दो भाई सरदार अजित सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह थे। भगत सिंह के जन्म के समय इनके पिता और दोनों चाचा जेल में बंद थे। भगत में भी देश भक्ति की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी।
भगत सिंह का पूरा परिवार देशभक्ति के रंग में रंगा हुआ था। इनके दादाजी सरदार अर्जुन देव अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे। अर्जुन देव के तीन पुत्र थे (सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह)। इन तीनों में भी देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत थे। भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह ने 1905 के बंग-भंग के विरोध में लाला लाजपत राय के साथ मिलकर पंजाब में जन विरोध आन्दोलन का संचालन किया। 1907 में, 1818 के तीसरे रेग्युलेशन एक्ट के विरोध में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई। जिसे दबाने के लिये अंग्रेजी सरकार ने कङे कदम उठाये और लाला लाजपत राय और इनके चाचा अजीत सिंह को जेल में डाल दिया गया।
अजीत सिंह को बिना मुकदमा चलाये रंगून जेल में भेज दिया गया। जिसके प्रतिक्रिया स्वरुप सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह ने जनता के बीच में विरोधी भाषण दिये तो अंग्रेजों ने इन दोनों को भी जेल में डाल दिया। भगत सिंह के दादा, पिता और चाचा ही नहीं इनकी दादी जय कौर भी बहुत बहादुर औरत थीं। वो सूफी संत अम्बा प्रसाद, जो उस समय के भारत के अग्रणी राष्ट्रवादियों में से एक थे, की बहुत बङी समर्थक थीं। एक बार जब सूफी संत अम्बा प्रसाद जी सरदार अर्जुन सिंह के घर पर रुके हुये थे उसी दौरान पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिये आ गयी, किन्तु भगत सिंह की दादी जय कौर ने बङी चतुराई से उन्हें बचा लिया।
यदि भगत सिंह के बारे में गहनता से अध्ययन करें तो ये बात बिल्कुल साफ है कि भगत पर उस समय की तत्कालिक परिस्थितियों और अपने पारिवारिक परिप्रेक्ष्य का गहरा प्रभाव पङा। ये बात अलग है कि भगत सिंह इन सबसे भी दो कदम आगे चले गये।
भगत सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा उनके गाँव बंगा (बावली) के स्कूल में हुयी। वे अपने बड़े भाई जगत सिंह के साथ स्कूल जाते थे। भगत सिंह को उनके स्कूल के सभी बच्चे चाहते थे। वे बड़ी सहजता से सभी को अपना मित्र बना लेते थे। वे अपने मित्रों के बहुत चहते थे। कभी- कभी तो उनके मित्र उन्हें कधें पर बिठाकर घर छोङने आते थे।
किन्तु भगत सिंह अन्य सामान्य बच्चों की तरह नहीं थे, वे अक्सर चलती हुई कक्षा को छोङकर बाहर मैदानों में चले जाते थे। उन्हें कल-कल करती नदियों के स्वर, चिङियों का चहचहाना बहुत पसंद था। भगत पढ़ने में बहुत कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। वो एक बार जो पाढ कण्ठस्थ कर लेते थे उसे कभी नहीं भूलते थे।
भगत सिंह की आगे कि पढाई के लिये दयानन्द एंग्लो स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। यहाँ से इन्होंने मैट्रिकुलेशन पास किया। उस समय असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था, इस आन्दोलन से प्रेरित होकर भगत ने स्कूल छोङ दिया और आन्दोलन को सफल करने में जुट गये। इसके बाद इन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। इन्होंने स्कूल में प्रवेश के लिये आयोजित परीक्षा को आसानी से पास कर लिया।
यहाँ इनकी मुलाकात सुखदेव, यशपाल और जयप्रकाश गुप्ता से हुई जो इनके सबसे करीबी मित्र माने जाते हैं। इन्होंने 1923 में एफ.ए. पास करके बी. ए. के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। भगत सिंह बी.ए. में पढ़ रहे थे जब इनके परिवार वालों ने इनकी शादी के लिये सोचना शुरु किया। परिवार वालो के इस व्यवहार पर भगत घर छोङकर चले गये।
भगत सिंह का जन्म उस समय हुआ जब देश की स्वतंत्रता के लिये चारों ओर आन्दोलन हो रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने तरीके से अंग्रेजी शासन का विरोध कर रहे था। ऐसे परिवेश में जन्में भगत का सबसे विलक्षण और प्रतिभाशाली होना स्वभाविक था। इस बात का प्रमाण उन्होंने अपने बाल्यकाल में ही दे दिया। एक बार जब भगत सिंह के खेतों में आम के पेङों की बुवाई की जा रही थी उस समय वो अपने पिता के साथ खेतों में घूम रहें थे। अचानक उन्होंने अपने पिता की अँगुली छोङ कर खेत की मेंङ पर ताङ के तिनकों को लगाना (रोपना) शुरु कर दिया जब उनके पिता ने उनसे पूछा कि भगत ये तुम क्या कर रहे हो तो उन्होनें जबाब दिया कि मैं देश को आजाद कराने के लिये बन्दूकें बो रहा हूँ।
भगत सिंह पर अपने चाचा सरदार अजीत सिंह का प्रभाव पङा था। क्योंकि अपने सभी भाईयों में अजीत सिंह ही सबसे ज्यादा क्रान्तिकारी विचारों के स्वामी थे। जब उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वो देश में रहकर सक्रिय रुप से अपनी योजनाओं को संचालित नहीं कर पा रहे तो वो भारत छोङकर ईरान के बुशहर से अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने लगे। भगत सिंह पर अपने चाचा की छाप अलग ही दिखाई पङती थी।
भगत सिंह 12 वर्ष की किशोरावस्था में थे जब 1919 में जलियावाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इस घटना नें इनके बाल मन को बहुत आहत किया। वो हत्याकाण्ड की अगली सुबह जलियावाला बाग पहुँचे और वहाँ से एक काँच की शीशी में खून से सनी मिट्टी भरकर ले आये और अपनी बहन अमृत कौर के पूछने पर उन्होंने अपने साथ लाई उस मिट्टी को दिखाते हुये बताया कि वो बाग गये थे और उस शीशी को रखकर उस पर फूल चढ़ाये। भगत सिंह प्रत्येक दिन नियम से उस पर फूल चढ़ाते थे।
जिस परिवार में भगत सिंह जन्में थे इस परिवार का हर एक सदस्य भारत माँ के लिये अपने कर्तव्यों को पूरा करने की सौगंध लिये हुये था। उनके मित्र (सहयोगी) भी उसी पृष्ठभूमि से थे और उनके आदर्श नेता लाला लाजपत राय और चन्द्रशेखर आजाद थे, ऐसे में भगत से देश सेवा की आशा न करना खुद से बेईमानी के समान है।
भगत सिंह 12 वर्ष के थे, जब जलियावाला बाग हत्याकांड (1919) हुआ था। जिसका भगत के युवा मन पर बहुत गहरा प्रभाव पङा। औऱ इसी घटना से आहत होकर इनके मन में सशक्त क्रान्ति की चिंगारी फूटी। जब भगत कक्षा नौ में पढते थे, तभी वह पढाई छोङ कर कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेने के लिये चले जाते थे। गाँधी जी असहयेग आन्दोलन के आह्वान पर भगत सिंह ने भी डी.ए.वी. स्कूल छोङ दिया और आन्दोलन में सक्रिय रुप से भाग लेने लगे। वे अपने साथियों के साथ जगह जगह पर विदेशी कपङों और सामानों को इकट्ठा करके उनकी होली जलाते और लोगों को भी आन्दोलन में भाग लेने को प्रोत्साहित करते।
5 फरवरी 1922 को अकाली दल के द्वारा पुलिस वालों को थाने में बन्द करके आग लगाने की घटना के कारण गाँधी जी ने इस आन्दोलन के स्थगन की घोषणा कर दी। इस आन्दोलन के स्थगन ने भगत को बहुत अधिक हतोत्साहित किया और उनका गाँधीवादी नीतियों पर थोङा बहुत जो विश्वास शेष था वह भी समाप्त हो गया। उन्होंने गाँधीवादी सिद्धान्तों के स्थान पर क्रान्तिकारी विचारों का अनुसरण किया और भारत को आजाद कराने में जुट गये।
असहयोग आन्दोलन की वापस लिये जाने के बाद भगत सिंह ने रुस, इटली और आयरलैण्ड की क्रान्तियों का गहन अध्ययन किया। इस गहन चिन्तन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्रान्ति से आजादी हासिल की जा सकती है। इसी धारणा को मन में रखकर उन्होंने क्रान्ति के मार्ग का अनुसरण करके क्रान्तिकारी युवाओं को संगठित किया।
भगत सिंह अपनी दादी के बहुत लाडले थे। उनके भाई (जगत सिंह) की मृत्यु के बाद उनका ये प्रेम मोह में बदल गया। उनके कहने पर सरदार किशन सिंह ने पङोस के गांव के एक अमीर सिख परिवार में शादी तय कर दी। जिस दिन लङकी वाले देखने के लिये आये उस दिन वो बहुत खुश थे। मेहमानों के साथ शिष्टता का व्यवहार किया और उन्हें लाहौर तक विदा भी करके आये। किन्तु वापस आने पर शादी के लिये साफ मना कर दिया।
पिता द्वारा कारण पूछने पर तरह-तरह के बहाने बनाये। कहा जब तक मैं अपने पैरों पर खङा ना हो जाऊँ तब तक शादी नहीं करुँगा, अभी मेरी उम्र कम है और मैं कम से कम मैट्रिक पास से ही शादी करुँगा। उनके इस तरह के बहानों को सुनकर किशन सिंह ने झल्लाकर कहा कि तुम्हारी शादी होगी और ये फैसला आखिरी फैसला है। उनकी सगाई तय हो गयी। भगत सिंह सगाई वाले दिन अपने पिता के नाम पत्र छोङ कर लाहौर से कानपुर भाग आये। उस पत्र में लिखे उनके शब्द निम्न हैः-
“पूज्य पिताजी नमस्ते-
मेरी जिन्दगी मकसदे आला यानि आजादी-ए-हिन्द के अमूल के लिये वक्फ हो चुकी है। इसलिये मेरी जिन्दगी में दुनियाबी खाहशाहत वायसे कशिश नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि खिदमते वतन के लिये वक्फ कर दिया गया है, लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है कि आप मुझे माफ फरमायेंगें।
आपका ताबेदार
भगत सिंह”
इस फरारी के बाद भगत वापस घर जब लौटे तब उन्हें अपनी दादी के बीमार होने का समाचार मिला। साथ ही परिवार वालों ने शादी के लिये जिद्द न करने का वादा किया। भगत ने आकर अपनी दादी की बहुत सेवा की, जिससे उनकी दादी शीघ्र ही स्वस्थ्य हो गयी।
भगत सिंह ने लाहौर लौट कर साल 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया जो हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजासंघ का ही दूसरा चेहरा थी। इस सभा को उग्र राष्ट्रीयता की भावना को जगाने के लिये स्थापित किया गया था। उस सभा के प्रमुख सूत्राधार भगवतीचरण और भगत सिंह थे। भगत सिंह जनरल सेकेट्री और भगवतीचरण प्रोपेगेण्डा सेकेट्री बने।
इसे स्थापित करने के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित थेः–
भगत सिंह कहीं बाहर से लौटे थे और अमृतसर स्टेशन पर उतरे थे। कुछ कदम आगे बढ़े ही थे तभी उन्होंने देखा कि एक सिपाही उनका पीछा कर रहा है। उन्होंने अपने कदम बढ़ा दिये तो उसने भी चाल बढ़ा दी। भगत सिंह दौङे और दोंनो के बीच आँख मिचौली शुरु हो गयी। दौङते हुये एक मकान के बोर्ड पर उनकी नजर गयी। उस पर लिखा था– सरदार शार्दूली सिंह एडवाकेट। भगत उस मकान के भीतर चलें गये। वकील सहाब मेज पर बैठे फाइल देख रहे थे। भगत ने उन्हें सारी स्थिति बताई और अपनी पिस्तौल निकाल कर मेज पर रख दी। वकील सहाब ने पिस्तौल मेज के भीतर डाला और नौकर को नाश्ता कराने का आदेश दिया।
कुछ देर बाद पुलिस वाला भी वहाँ पहुँच गया और वकील साहब से पूछा कि क्या उन्होंने किसी भागते हुये सिख नवयुवक को देखा है। वकील साहब ने कीर्ति दफ्तर की ओर इशारा कर दिया।
पूरे दिन भगत सिंह वकील साहब के घर पर ही रहे और रात को छहराटा स्टेशन से लाहौर पहुँचे। जब वो ताँगे से घर जा रहे थे उसी समय पुलिस ने ताँगे को घेर कर भगत को गिरफ्तार कर लिया।
इस गिरफ्तारी का नाम कुछ और आधार कुछ और था। लाहौर में दशहरे के मेले में किसी ने बम फेंक दिया था, जिससे 10-12 आदमियों की मृत्यु हो गयी और 50 से अधिक घायल हो गये थे। इसे दशहरा बम काण्ड कहा गया और इसी अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने यह अफवाह फैला दी कि यह बम क्रान्तिकारियों ने फेंका है।
देखने पर यह दशहरा बम काण्ड की गिरफ्तारी थी पर हकीकत में इसका मकसद काकोरी केस के फरारों और दूसरे सम्बन्धित क्रान्तिकारियों की जानकारी हासिल करना था। पुलिस यातनाओं और हजारों कोशिशों के बाद भी भगत ने उन्हें कुछ भी नहीं बताया। भगत 15 दिन लाहौर की जेल में रहें फिर उन्हें बिर्सटल की जेल में भेज दिया।
सरदार किशन सिंह की कानूनी कार्यवाहियों के कारण पुलिस भगत को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने को बाध्य हुई। कुछ सप्ताह बाद ही भगत सिंह से कुछ ना उगलवा सकने के कारण उन्हें जमानत पर छोङ दिया गया। भगत सिंह की जमानत राशि 60 हजार थी जो उस समय के अखबारों की सुर्खियों में रही।
जमानत पर आने के बाद उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया कि उनकी जमानत खतरे में आये और उनके परिवार पर कोई आँच आये। उनके लिये उनके पिता ने लाहौर के पास एक डेरी खुलवा दी। भगत सिंह अब डेरी का काम देखने लगे और साथ ही साथ गोपनीय रुप से क्रान्तिकारी गतिविधियों को भी अंजाम देते रहे। डेरी दिन में डेरी होती और रात में क्रान्तिकारियों का अड्डा। यहीं पर सलाह होती और योजनाओं का ताना बाना बुना जाता।
भगत सिंह जमानत मे जकङें हुये थे। इस जकङन को तोङने के लिये सरकार को अर्जियाँ देते रहते कि “या तो भगत पर मुकदमा चलाओं या फिर जमानत समाप्त करों”। बोधराज द्वारा पंजाब कौंसिल में भगत की जमानत के संबंध में सवाल उठाया गया, डॉ. गोपीचंद भार्गव का भी इसी विषय पर नोटिस पर सरकार ने भगत की जमानत समाप्त करने की घोषणा कर दी।
बम बनाने की कला को सीखाः–
सॉण्डर्स वध के बाद संगठन को चंदा मिलना प्रारम्भ हो गया था। अब हिंसप्रस को एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो बम वनाने की विद्या में कुशल हो। उसी दौरान कलकत्ता में भगत सिंह का परिचय यतीन्द्रदास से हुआ जो बम बनाने की कला में कुशल थे। बम बनाने वाला व्यक्ति मिल जाने पर भगत सिंह की इच्छा थी कि प्रत्येक प्रान्त का एक एक प्रतिनिधि ये शिक्षा ले ताकि भविष्य में बम बनाने वाले दुर्लभ न रहें।
कलकत्ता में बम बनाने के लिये प्रयोग होने वाली गनकाटन बनाने का कार्य कार्नवालिस स्ट्रीट में आर्यसमाज मन्दिर की सबसे ऊँची कोठरी में किया गया। उस समय यह कला सीखने वालों में फणीन्द्र घोष, कमलनाथ तिवारी, विजय और भगत सिंह मौजूद थे।
कलकत्ता में बम बनाना सीखने के बाद सामान को दो टुकङियों में आगरा भेजा गया। आगरा में दो मकानों का प्रबन्ध किया गया एक हींग की मण्डी में दूसरा नाई की मंण्डी में। नाई मण्डी में बम बनाने की कला को सिखाने के लिये सुखदेव और कुन्दल लाल को भी बुलाया गया।
असेंबली में बम फेंकने का विचार भगत के मन में नेशनल कॉलेज के समय से ही थी और जब वो कलकत्ता से आगरा के लिये जा रहे थे उसी दौरान उन्होंने कार्य की रुप रेखा तैयार कर ली थी। इस योजना को कार्यरुप देने के लिये दिल्ली में जयदेव कपूर ऐसे विश्वसनीय सूत्रों को जोङने में लगे थे जिससे कि जब चाहें असेम्बली में जाने का पास मिल जाये। इन पासों से भगत, आजाद और दूसरे कई साथी वहाँ जाकर पूरी रुप रेखा बना आये थे कि कहाँ से बम फेंका जाये और कहाँ जाकर गिरे।
इस योजना के बाद तीन प्रश्न उठे। ये प्रश्न थे कि बम कब फेंका जाये, कौन फेंके और बम फेंकने के बाद भागा जाये या गिरफ्तार हुआ जाये। आजाद चाहते थे कि बम फेंकने के बाद भागा जाना सहीं है क्योंकि वह सभा में जाकर सब रास्तों को देखने के बाद समझ गये थे कि बम फेंक कर आसानी से भागा जा सकता है। उनकी योजना थी कि बाहर मोटर रखेंगें और बम फेंकने वालो को आसानी से भगा ले जायेंगे।
किन्तु भगत सिंह गिरफ्तार होने के पक्ष में थे। वह गुप्त आन्दोलन को जनता का आन्दोलन बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि गिरफ्तार हुआ जाये और मुकदमें के जरिये जनता को अपने विचारों से अवगत कराया जाये। क्योंकि जो बातें ऐसे नहीं कहीं जा सकती उन्हें मुकदमें के दौरान अदालत में खुले तौर पर कहा जा सकता है। और उन बातों को समाचार पत्र वाले सुर्खियाँ बनाकर प्रस्तुत करेंगें। जिससे आसानी से जन जन तक अपने संदेश को पहुँचाया जा सकता है।
असेम्बली में बम फेंकने की योजना भगत सिंह की थी तो सभी जानते थे कि बम फेंकनें भी वही जायेंगें। सभा में विजय कुमार सिन्हा ने भगत का समर्थन किया तो इनकी बात का महत्व और अधिक बढ़ गया।
यह सब बातें हो ही रहीं थी कि समाचार मिला कि होली के दिन असेम्बली के सरकारी लोगों की दावत के निमंत्रण को वायसराय ने स्वीकार कर लिया है। इस सूचना पर सभा में तुरंत तय किया गया कि वायसराय पर ही आक्रमण किया जाये। इस कार्य के लिये राजगुरु, जयदेव कपूर और शिव वर्मा को नियुक्त क्या गया। वायसराय पर बम कब, कैसे, कहाँ फेंकना है सब तय हो गया। किन्तु वायसराय के तय रास्ते से न आने के कारण यह योजना असफल हो गयी। इसके बाद पुनः असेम्बली पर बम फेंकने का निश्चय किया गया।
केन्द्रीय असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पेश होने थे। जिसमें पहले बिल (पब्लिक सेफ्टी बिल) का उद्देश्य देश के अन्दर के आन्दोलनों को असफल करना था और दूसरे बिल (ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल) का उद्देश्य मजदूरों को हङताल के अधिकार से वंचित रखना था। भगत सिंह ने इसी अवसर पर असेम्बली में बम फेंकने का निर्णय लिया और अपने उद्देश्य को स्पष्ट करने के लिये साथ में पर्चें भी फेंकने का निर्णय लिया गया।
8 अप्रैल 1929 को दोनों बिलों पर जब वायसराय की घोषणा सुनायी जाने वाली थी उसी दिन बम फेंकने का निर्णय लिया गया। हिंसप्रस के सभी साथियों को दिल्ली छोङकर जाने का आदेश दिया गया था। दिल्ली में केवल शिव वर्मा और जयदेव कपूर को रुकना था। जय देव कपूर ने दोनों (भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त) को उस जगह पर बिठा दिया जहाँ से बिना किसी को नुकसान पहुँचाये बम को आसानी से फेंका जा सकें।
जैसे ही वायसराय के विशेषाधिकारों के द्वारा बिल पास होने की घोषणा हुई, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त अपने स्थानों पर खङे हो गये और एक के बाद एक दो बम लगातार फेंकें और उन बमों के साथ सभा, गैलरी और दर्शक दिर्घा में अपने उद्देश्यों के पर्चें भी फेंकें । असेम्बली में चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। जब बम फटने के बाद का काला धुँआ हटा तो हाल खाली था। सदस्यों में केवल तीन लोग पं.मदन मोहन मालवीय, मोती लाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना बैठे हुये थे। और बटुकेश्वर दत्त व भगत सिंह अपनी जगह पर खङे थे। बम फेंकने के बाद उन्होंने पूरे जोश से नारा लगाया – “इंकलाब जिन्दाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो।”
भगत सिंह और दत्त के आत्मसमर्पण करने के बाद उन्हें दिल्ली थाने में ले जाया गया। उनके द्वारा फेंके गये पर्चों में से एक पर्चा हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता नें बङी चतुराई से उठा लिया और उसे शाम के संस्करण में छाप भी दिया। जब भगत और दत्त से कोतवाली में बयान देने को कहा गया तो उन दोनों ने ये कहते हुये इंकार कर दिया कि हमें जो कुछ कहना है वो अदालत में ही कहेंगें। पुलिस ने उन्हें दिल्ली जेल में डाल दिया।
गिरफ्तारी के बाद 24 अप्रैल 1929 को उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा। 3 मई 1929 को उनकी भेंट अपने पिता किशन सिंह से हुई। उनके पिता के साथ आसफअली वकील साहब भी आये थे। सरदार किशन सिंह बचाव पक्ष में पूरी ताकत और ढंग से मुकदमा लङने के पक्ष में थे, किन्तु भगत सिंह अपने पिता के इस निर्णय से सहमत नहीं थे। भगत जी ने आसफअली जी से कुछ कानून पूछे औऱ उस समय की बातचीत समाप्त हो गयी।
7 मई 1929 को मिस्टर पूल जो कि उस समय एडीशनल मजिस्ट्रेट थे की अदालत में जेल में ही सुनवाई प्रारम्भ हुई। किन्तु भगत सिंह ने दृढ़ता से कहा कि हम अपना पक्ष सेशन जज के सामने ही रखेंगे। इसी कारण उनका केस भारतीय कानून की धारा 3 के अधीन सेशन जज मि. मिल्टन की अदालत में भेजा गया और दिल्ली जेल में सेशन जज के अधीन 4 जून 1929 को मुकदमा शुरु हुआ। 10 जून 1929 को केस की सुनवाई समाप्त हो गयी और 12 जून को सेशन जज ने 41 पृष्ठ का फैसला दिया जिसमें दोनों अभियुक्तों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया। और इस पूरी सुनवाई के दौरान जिस बात ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा वो भगत सिंह की स्वंय के बचाव के प्रति निर्लिप्तता थी। आजीवन कारावास के बाद भगत सिंह को मिंयावाली जेल और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल में भेज दिया गया।
इसके बाद अपने विचारों को और व्यापक रुप से देशवासियों के बीच पहुँचाने के लिये इस केस के लिये हाई कोर्ट में अपील की गयी और उस अपील की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने फिर से अपने विचार देशवासियों तक पहुँचाये और धीरे-धीरे लोग उनका अनुसरण करने लगे। भगत सिंह का लक्ष्य काफी हद तक सफल हो रहा था।
13 जनवरी 1930 को सेशन जज के फैसले को बहाल रखते हुये आजन्म कारावास का दण्ड सुना दिया।
असेम्बली बम काण्ङ के मुकदमे के दौरान भगत सिंह और दत्त को यूरोपीयन क्लास में रखा गया। वहाँ भगत के साथ अच्छा व्यवहार हुआ, लेकिम भगत सभी के लिये जीने वाले व्यक्तियों में से एक थे। वहाँ जेल में उन्होंने भारतीय कैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यहार और भेदभाव के विरोध में 15 जून 1929 को भूख हङताल की। उन्होंने अपनी एक जेल से दूसरी जेल में बदली के सन्दर्भ में 17 जून 1929 को मियावाली जेल के अधिकारी को पत्र भी लिखा। उनकी यह माँग कानूनी थी अतः जून के अन्तिम सप्ताह में उन्हें लाहौर सेट्रल जेल में बदल दिया गया। उस समय वह भूख हङताल पर थे। भूख के कारण उनकी अवस्था ऐसी हो गयी थी कि कोठरी पर पहुँचाने के लिये स्ट्रेचर का सहारा लिया गया।
10 जुलाई 1929 को लाहौर के मजिस्ट्रेट श्री कृष्ण की अदालत में आरम्भिक कार्यवाही शुरु हो गयी। उस सुनवाई में भगत और बटुकेश्वर दत्त को स्ट्रेचर पर लाया गया। इसे देख कर पूरे देश में हाहाकार मच गया। अपने साथियों की सहानुभूति में बोस्टर्ल की जेल में साथी अभियुक्तों ने अनशन की घोषणा कर दी। यतीन्द्र नाथ दास 4 दिन बाद भूख हङताल में शामिल हुये।
14 जुलाई 1929 को भगत सिंह ने अपनी माँगों का एक पत्र भारत सरकार के गृह सदस्यों को भेजा, जिसमें निम्न माँगे की गयी थीः–
सरकार के लिये भूख हङताल उसके सम्मान की बात बन गयी थी। इधर भगत का भी हर दिन 5 पौण्ड वजन घटता जा रहा था। 2 सितम्बर 1929 में सरकार ने जेल इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की।
13 सितम्बर को भगत सिंह के साथ–साथ पूरा देश दर्द से तङप गया और आसुओं से भीग गया जब भगत सिंह के मित्र और सहयोगी यतीन्द्रनाथ दास भूख हङताल में शहीद हो गये।
यतीन्द्रनाथ दास के शहीद होने पर पूरे देश में आक्रोश की भावना उमङ रही थी। इधर सरकार इस भूख हङताल से परेशान थी। सरकार और देश के नेता दोनों ही अपने-अपने तरीकों से इस भुख हङताल को बन्द कराना चाहते थे। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा नियुक्त जेल कमेटी ने अपनी सिफारिशें सरकार के पास भेज दी। भगत सिंह को अंदेशा हो गया था कि उनकी माँगो को बहुत हद तक मान लिया जायेगा। भगत सिंह ने कहा – “हम इस शर्त पर भूख हङताल तोङने को तैयार है कि हम सबको एक साथ ऐसा करने का अवसर दिया जाये।” सरकार ये बात मान गयी।
5 अक्टूबर 1929 को भगत सिंह नें 114 दिन की ऐतिहासिक हङताल अपने साथियों के साथ दाल फुलका खाकर भूख हङताल समाप्त की।
ब्रिटिश सरकार जल्द से जल्द इस केस (लाहौर षङ्यंत्र) को अन्तिम मोङ दोकर समाप्त करना चाहती थी। इसी उद्देश्य से 1 मई 1930 में गवर्नल जनरल लार्ड इरविन ने एक आदेश जारी किया। इसके अनुसार 3 जजों का एक स्पेशल ट्रिब्यूनल नियुक्त किया गया। जिसे यह अधिकार प्राप्त था कि अभियुक्तों की अनुपस्थिति में सफाई वकीलों और सफाई गवाहों के उपस्थित हुये बिना और सरकारी गवाहों से जिरह के अभाव में भी यह मुकदमे का एक तरफा फैसला कर सकती है। 5 मई 1930 को इस ट्रिब्यूनल के सामने लाहौर षङ्यंत्र केस की सुनवाई शुरु हुई।
13 मई 1930 को इस ट्रिब्यूनल के बहिष्कार के बाद फिर से एक नये ट्रिब्यूनल का निर्माण किया जिसमें जस्टिस जी. सी. हिल्टन – अध्यक्ष, जस्टिस अब्दुल कादिर – सदस्य, जस्टिस जे. के. टैप – सदस्य थे। इसी ट्रिब्यूनल ने 7 अक्टूबर, 1930 की सुबह एक तरफा फैसला सुनाया। ये फैसला 68 पृष्ठ का था जिसमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी, कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गयाप्रसाद, किशोरीलाल और महावीर सिंह को आजन्म काला पानी की सजा मिली। कुन्दल लाल को 7 साल और प्रेमदत्त को 3 साल की सजा सुनाई गयी।
सरकार के रवैये से बिल्कुल तय था कि चाहे कुछ भी हो जाये वह भगत सिंह को तो फाँसी अवश्य देगी। इस फैसले के खिलाफ नवम्बर 1930 को प्रिवि कौंसिल में अपील कर दी गयी। किन्तु इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ।
24 मार्च को 1931 को भगत सिंह को फाँसी दिया जाना तय हो गया। किन्तु सरकार ने जन विद्रोह से बचने के लिये 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दे दी गयी और ये महान अमर व्यक्तित्व अपने देशवासियों में देश प्रेम की भावना जगाने के लिये शहीद हो गये।