जीवनी

लाला लाजपत राय

लाला लाजपत राय (28 जनवरी 1865–17 नवम्बर 1928)

भारत एक महान देश है। यहाँ हर युग में महान आत्माओं ने जन्म लेकर इस देश को और भी महान बनाया है। ऐसे ही युग पुरुषों में से एक थे, लाला लाजपत राय। जो न केवल महान व्यक्तित्व के स्वामी थे, बल्कि गंभीर चिन्तक, विचारक, लेखक और महान देशभक्त थे। इन्होंने उस समय के भारतीय समाज में व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिये बहुत से प्रयास किये थे।

इनके बोलने की शैली बहुत प्रभावशाली और विद्वता पूर्ण थी। इन्होंने अपनी भाषा-शैली में गागर में सागर भरने वाले शब्दों का प्रयोग किया। ये अपनी मातृ भूमि को गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुये देखकर स्वंय के जीवन को धिक्कारते थे और भारत को आजाद कराने के लिये आखिरी सांस तक संघर्ष करते हुये शहीद हो गये।

लाला लाजपत राय से सम्बन्धित तथ्यः
पूरा नाम
– लाला लाजपत राय
उपाधियाँ– शेर-ए-पंजाब, पंजाब केसरी
जन्म तिथि– 28 जनवरी 1865
जन्म स्थान– धुड़ीके
जिला– फिरोजपुर, पंजाब
पैतृक गाँव– जगराव, लुधियाना (पंजाब)
माता-पिता– गुलाब देवी, लाला राधाकृष्ण अग्रवाल (अध्यापक)
शिक्षा– गवर्नमेंट कॉलेज युनिवर्सिटी, लाहौर
संगठन– पंजाब नेशनल बैंक (1894), सर्वेन्ट ऑफ प्यूपिल सोसायटी, आल इण्डिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस
स्थापित विद्यालय– 1883 में अपने भाईयों और मित्रों (हंसराज और गुरुदत्त) के साथ डी.ए.वी.(दयानन्द अंग्लों विद्यालय) की स्थापना, पंजाब नेशनल कॉलेज लाहौर की स्थापना
मृत्यु– 17 नवम्बर 1928

 

लाला लाजपत राय की जीवनी (जीवन परिचय)

जन्म व बाल्यकाल

भारत के शेर-ए-पंजाब, पंजाब केसरी की उपाधि से सम्मानित महान लेखक और राजनीतिज्ञ लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब राज्य के फिरोजपुर जिले के धुड़ीके गाँव में हुआ था। इनका जन्म अपने ननिहाल (इनकी नानी के घर) में हुआ था। उस समय ये परम्परा थी कि लड़की के पहले शिशु का जन्म उसके अपने घर में होगा, इसी परम्परा का निर्वहन करते हुये इनकी माँ गुलाब देवी ने अपने मायके में अपने पहले बच्चे को जन्म दिया। लाला लाजपत राय का पैतृक गाँव जगराव जिला लुधियाना था, जो इनके ननिहाल (धुड़ीके) से केवल 5 मील की दूरी पर था।

लाला लाजपत राय बाल्यास्था के प्रारम्भिक दिनों में अच्छे स्वास्थ्य वाले नहीं थे, क्योंकि इनका जन्म स्थान एक मलेरिया ग्रस्त क्षेत्र था। बचपन में ये बहुत ही अस्वस्थ और अक्सर मलेरिया से पीड़ित रहते थे।

पारिवारिक परिवेश (वातवरण)

लाला लाजपत राय के दादा मालेर में पटवारी थे और अपने परिवार की परम्परा के अनुरुप किसी भी प्रकार से धन संग्रह को अपना परम कर्तव्य मानते थे। वे जैन धर्म के अनुयायी थे और अपने धर्म की रीतियों का अच्छे ढ़ंग से निर्वहन करते थे। इनकी दादी बहुत ही सौम्य स्वभाव की थी। वे धर्मात्मा, शुद्ध हृदय वाली, अतिथियों का स्वागत करने वाली, उदार तथा सीधी-सादी स्त्री थी। उन्हें किसी भी प्रकार का कोई भी लोभ नहीं था और धन संग्रह उनके स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था।

लाला लाजपत राय के पिता राधाकृष्ण अपने छात्र जीवन में बहुत ही मेधावी छात्र थे। इनके पिता (राधाकृष्ण) ने अपने छात्र जीवन में भौतिक विज्ञान तथा गणित की परीक्षा में पूरे अंक (नम्बर) प्राप्त किये थे। राधाकृष्ण सदैव ही अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहते थे। वे अपनी माता की तरह ही धन के प्रति उदासीन थे। उनकी धर्म में बहुत आस्था थी परन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि उन्होंने अपने परिवार में वर्षों से चली आ रही मान्यताओं को मान लिया था। इसके विपरीत वे किसी भी वस्तु को तभी स्वीकार करते जब उस पर गूढ़ अध्ययन (गहन चिन्तन) कर लेते थे।

स्कूल के समय में ही राधाकृष्ण को मुस्लिम धर्म का अध्ययन करने का अवसर मिला क्योंकि उनके अध्यापक एक मुस्लिम थे और उनका आचरण बहुत पवित्र था। इनके अध्यापक के पवित्र आचरण, ईमानदारी और धर्म में दृढ़ आस्था के कारण कई छात्रों ने अपना धर्म परिवर्तित कर लिया था और जिन्होंने धर्म नहीं बदला वो अपने वास्तविक विश्वासों में मुस्लिम ही रहें। राधाकृष्ण ने भी ऐसा ही किया, वे नमाज पढ़ते, सच्चे मुस्लमानों की तरह ही रमजान में रोजा रखते थे। उनके व्यवहार से ऐसा लगता कि वे किसी भी समय अपना धर्म परिवर्तित कर लेंगे किन्तु इनकी पत्नी गुलाब देवी (लाला लाजपत राय की माता) के प्रयासों के कारण ऐसा संभव न हुआ।

 

पारिवारिक वातावरण का लाजपत पर प्रभाव

बालक लाजपत के बाल मन पर उनके पारिवारिक वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने अपने पिता को इस्लाम धर्म के नियमों का पालन करते देखा। इनके दादा पक्के जैनी थे और जैन धर्म के नियमों का पालन करते थे। इनकी माता गुलाब देवी सिख धर्म को मानने वाली थी और नियमपूर्वक सिख धर्म से जुड़े जाप व पूजा-पाठ करती थी। यही कारण था कि बालक लाजपत के मन में धार्मिक जिज्ञासा और उत्सुकता बढ़ गयी जो चिरकाल (बहुत लम्बे समय) तक बनी रही। प्रारम्भ में ये भी अपने पिता की तरह नमाज पढ़ते और कभी-कभी रमजान के महीने में रोजा भी रखते थे। कुछ समय बाद ही इन्होंने इस्लामी रस्मों को छोड़ दिया।

लाला लाजपत राय में इतिहास के अध्ययन करने की प्रवृति (इच्छा) भी इनके पिता (मुंशी राधाकृष्ण) ने जाग्रत की। इन्होंने छोटी उम्र में ही फिरदौसी की शाहनामा और व्यास की महाभारत को कई बार पढ़ा। प्रारम्भ में वे अपने पिता के साथ अध्ययन करते थे और बड़े होने पर स्वंय ही इनका अध्ययन करना शुरु कर दिया और इसे कई बार पढ़ा। ये बचपन में शाहनामा पढ़ने का ही परिणाम था जो इतिहास के ग्रन्थों को पढ़ने में इनकी रुचि को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ही बालक लाजपत का बौद्धिक विकास हुआ।

प्रारम्भिक शिक्षा

लाला लाजपत राय की प्रारम्भिक शिक्षा रोपड़ के स्कूल में हुई। कुरान, शाहनामा व इतिहास की अन्य पुस्तकों को पढ़ने में संलग्न होने और मलेरिया से पीड़ित होने पर भी ये अपनी पाठ्य पुस्तकों को बहुत रुचि के साथ पढ़ते थे। इन्होंने कभी भी अपने पाठ्य क्रम को भंग नहीं होने दिया। ये पूरे स्कूल में सबसे कम आयु के थे और हमेशा अपनी क्लास में पहले स्थान पर रहते थे।

इनके पिता राधाकृष्ण इन्हें घर पर भी शिक्षा दिया करते थे जिससे इनकी स्कूली शिक्षा में सहायता मिलती थी। लाजपत राय शुरु से ही मेधावी छात्र थे और अपने पिता की ही तरह अपनी क्लास में सबसे पहले स्थान पर आते थे। इनके पिता ने इन्हें गणित, भौतिक विज्ञान के साथ ही इतिहास तथा धर्म की भी शिक्षा दी।

रोपड़ स्कूल 6 क्लास तक ही था। यहाँ से शिक्षा पूरी करने के पश्चात इन्हें आगे की पढ़ाई के लिये लाहौर भेज दिया गया। शिक्षा विभाग की ओर से इन्हें सात रुपये मासिक की छात्रवृति दी गयी तो ये लाहौर से दिल्ली आ गये। इन्होंने दिल्ली में रहकर 3 महीने तक अध्ययन किया पर यहाँ की जलवायु इनके स्वास्थ्य के अनुकूल नही थी जिस कारण ये बीमार हो गये और अपनी माता के साथ अपने गाँव जगराव आ गये।

दिल्ली छोड़ने के बाद इन्होंने मिशन हाई स्कूल लुधियाना में प्रवेश लिया और मेधावी छात्र होने के कारण यहाँ भी इन्हें छात्रवृति प्राप्त हुई। वर्ष 1877-78 में लाजपत ने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की, इसी वर्ष इनका विवाह राधा देवी से हुआ। यही से ही इन्होंने मैट्रीकुलेशन की भी परीक्षा उत्तीर्ण की। बीमारी ने इनका पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा, फलस्वरुप कुछ समय बाद ही इन्हें मजबूर होकर स्कूल छोड़ना पड़ा। इसी समय इनके पिता का स्थानान्तरण शिमला से अम्बाला हो गया और इनका पूरा परिवार वहीं पहुँच गया।

 

लाला लाजपत राय की उच्च शिक्षा

लाला लाजपत राय का परिवार अधिक सम्पन्न नहीं था। इनके पिता के सामने इनकी उच्च शिक्षा को पूरा कराने की चुनौती थी। इनकी उच्च शिक्षा को पूर्ण करने के लिये इनके पिता ने अपने मित्र सजावल बलोच से मदद माँगी। बलोच साहब एक कट्टर मुस्लिम सज्जन थे और राधाकृष्ण के घनिष्ट मित्र थे। इन्होंने लाजपत की शिक्षा के लिये आर्थिक सहायता देने का वचन दिया।

1880 में लाला लाजपत राय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय तथा पंजाब विश्वविद्यालय दोनों से डिप्लोमा की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे 1881 में 16 वर्ष की आयु में लाहौर आ गये और लाहौर के एकमात्र स्कूल गवर्नमेंट यूनिवर्सिटी लाहौर में प्रवेश लिया। ये अपनी पढ़ाई का ज्यादातर खर्चा छात्रवृति से ही पूरा कर लेते थे बस कभी-कभी अपने पिता से 8 या 10 रुपये मासिक लेते थे। ये अपना अध्ययन अपने सहपाठियों से पाठ्यक्रम की किताबों को लेकर करते थे। इतने अभाव का जीवन व्यतीत करते हुये भी इन्होंने 1882-83 में एफ.ए. (इंटरमिडियेट) की परीक्षा के साथ ही मुख्तारी (छोटे या निम्न स्तर की वकालत या वकालत का डिप्लोमा) की परीक्षा भी सफलता पूर्वक उत्तीर्ण की।

कॉलेज के दौरान सार्वजनिक जीवन

जिस समय लाजपत राय ने कॉलेज में प्रवेश लिया उस समय भाषा संबंधी आन्दोलन शुरु हो रहा था। पंजाब में आर्य समाज से संबंध रखने वाले लोग हिन्दुओं को हिन्दी व संस्कृत भाषा को अपनाने के लिये जोर दे रहे थे। लाजपत राय के कुछ मित्रों नें इन्हें भी अरबी का अध्ययन छोड़कर संस्कृत पढ़ने का सुझाव दिया तो इन्होंने भी राष्ट्र प्रेम के कारण अरबी की क्लास छोड़कर संस्कृत की क्लास में जाना शुरु कर दिया। इस घटना को ही लाला लाजपत राय के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने की पहली सीढ़ी माना जाता है।

हिन्दी आन्दोलन (1882)

राष्ट्र प्रेम की भावना से प्रेरित होकर लाला लाजपत राय बहुत जल्दी ही हिन्दी आन्दोलन के प्रचारक बन गये। इनके साथ-साथ ही इनके दो मित्रों गुरुदत्त व हंसराज के सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ भी हिन्दी आन्दोलन के द्वारा हुआ। गुरुदत्त और लाला लाजपत राय हिन्दी के पक्ष में मेमोरियल के लिये हजार हस्ताक्षर एकत्र (इकट्ठा) करने में संलग्न थे।

1882 में लाला लाजपत राय का अम्बाला में हिन्दी के पक्ष में पहला सार्वजनिक भाषण हुआ। इस भाषण के श्रोताओं में मजिस्ट्रेट भी शामिल थे, जिन्होंने इस भाषण की रिपोर्ट बना कर गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंसीपल के पास भेज दी। जिस कारण इन्हें प्रिंसीपल द्वारा ऐसे आन्दोलनों से दूर रहने की चेतावनी भी दी गयी।

लाजपत राय का पहले ब्रह्म समाज और बाद में आर्य समाज में प्रवेश

लाला लाजपत राय दुविधा में थे कि वे आर्य समाज और ब्रह्म समाज दोनों में से किसमें शामिल हो। इनके मित्र गुरुदत्त कॉलेज के समय से ही आर्य समाजी बन चुके थे। लाला लाजपत राय इनके मित्र थे किन्तु इनको आर्य समाज से कोई भी लगाव नहीं था।

लाला लाजपत राय पर इनके पिता के मित्र अग्निहोत्री का विशेष प्रभाव था। अग्निहोत्री गवर्नमेंट स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक थे और ब्रह्मसमाज को मानने वाले थे। लाजपत इनके साथ व्याख्यानों के दौरे पर भी जाते थे। ऐसे ही एक सभा के दौरे के दौरान इन्होंने राजा राम मोहन राय के जीवन पर लेख पढ़ा जिससे ये बहुत अधिक प्रभावित हुये और 1882 में इनके पिता के मित्र अग्निहोत्री ने इन्हें विधिवत् ब्रह्म समाज में प्रवेश करा दिया।

परन्तु ये ज्यादा दिनों तक ब्रह्म समाज से नहीं जुड़ सके। इनके मित्र गुरुदत्त और हंसराज आर्य समाजी थे और हमेशा आर्य समाज से जुड़ी बातें करते रहते थे। वर्ष के अन्त में आर्य समाज का वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। लाजपत राय अपने मित्रों से इस उत्सव के बारे में बहुत सी बाते सुन चुके थे अतः वार्षिकोत्सव में शामिल होने की उत्सुकता के कारण ये सम्मेलन में शामिल हुये। ये इस समारोह से इतने प्रभावित हुये कि दूसरे दिन भी उत्सव में शामिल होने के लिये पंण्डाल में पहुँच गये। आर्य समाज के प्रधान साईंदास के व्यक्तित्व से प्रभावित होने के कारण ये आर्य समाजी बन गये।

आर्य समाज में प्रवेश होने के बाद इन्हें सार्वजनिक भाषण देने के लिये मंच पर बुलाया गया। इनके भाषण के बाद पूरा पंण्डाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। इसी समय लाजपत राय को पहली बार सार्वजनिक भाषण का महत्व महसूस हुआ। अब इनका समय पढ़ाई के बाद हिन्दी आन्दोलन के कार्यों में सक्रिय भाग लेने में व्यतीत होने लगा। धीरे-धीरे ये पंजाब के सार्वजनिक जीवन की ओर ढ़लते गए।

आर्य समाज के कार्यों में नेतृत्व

आर्य समाज में प्रवेश करते ही लाला लाजपत राय एक नेता के रुप में प्रसिद्ध हो गये। आर्य समाज की विभिन्न गोष्ठियों और सभाओं का आयोजन इनके नेतृत्व में किया जाता था। इसी क्रम में इन्हें लाला साईंदास (आर्य समाज की लाहौर शाखा के प्रधान) ने राजपूताना और संयुक्त प्रान्त में जाने वाले शिष्टमंण्डलों में जाने के लिये चुना। उन शिष्ट मण्डलों में महत्वपूर्ण सदस्य के तौर पर मेरठ, अजमेर, फर्रुखाबाद आदि स्थानों पर भ्रमण किया, भाषण दिये, आर्य समाजियों से मुलाकात की और इस बात का अनुभव किया कि कैसे एक छोटी सी संस्था का विकास हो रहा है।

आखिरकार इन्हें वो प्राप्त हो गया जिसकी खोज में उनका मन बचपन से भटक रहा था। उनकी जिज्ञासा का परिणाम यह हुआ कि उन्हें जो ठीक लगा उसमें उतर गये- उसका दोष दिखायी दिया तो उसे छोड़ दिया और जो सत्य लगा उसके पीछे दौड़ पड़े और अन्त में एक सच्चे जिज्ञासु बन गये।

लाजपत राय को इस समाज का जो आदर्श सबसे अधिक आकर्षित करता था वो था समाज के प्रत्येक सदस्य से यह आशा करना कि व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा समष्टि के कल्याण को श्रेष्ठ समझे। यही सेवा भाव इनके मन में आर्य समाज के प्रति श्रद्धा को प्रगाढ़ (मजबूत) कर देता था। इन्हें आर्य समाज के सिद्धान्तों ने आकर्षित नहीं किया था बल्कि आर्य समाज के द्वारा हिन्दुओं के कल्याण के लिये उत्साह, भारत के गौरवमयी अतीत उत्थान के लिये किये गये प्रयत्न और देश भक्ति के भावों ने आर्य समाज ने इनके मन में विशेष स्थान प्राप्त किया।

आर्य समाज का लाला लाजपत राय के जीवन पर प्रभाव

लाला लाजपत राय के जीवन पर आर्य समाज का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। समाज से अलग होने के बाद भी वे यह कभी नहीं भूल सके कि इनका शिक्षण कार्य आर्य समाज के वातावरण में हुआ है। इस समाज की संगति में ही इन्होंने भाषण कला के महत्व को समझा। अंग्रेजी तथा उर्दू में लेखन तथा सम्पादन, आन्दोलनों के नेतृत्व, महान संस्थाओं को चलाने, गरीबों तथा भूकम्प पीड़ितों की मदद, अनाथालयों की स्थापना आदि के कार्य को करने के अवसर आर्य समाज से जुड़ने के कारण ही प्राप्त हुये थे। इस प्रकार आर्य समाज ने लाजपत राय के जीवन की भूमिका का निर्माण किया था।

आर्थिक समस्या

लाला लाजपत राय का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके लिये आर्य समाज से जुड़ने और हिन्दी आन्दोलन से प्राप्त हुई शिक्षा और ट्रेनिंग अमूल्य थी पर इससे इनकी आजीविका की समस्या हल नहीं हो सकती थी। इनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इनके पिता पेशे से एक अध्यापक थे जिससे बहुत कम वेतन प्राप्त होता था और इनका परिवार भी बड़ा था। इस छोटी सी आय में ही इनकी माँ पूरे परिवार का पालन पोषण करती थी। ऐसी स्थिति में भी इनके पिता ने इन्हें उच्च शिक्षा के लिये लाहौर भेजा तो इनके परिवार को बहुत कष्टों का सामना करना पड़ा।

पहले ब्रह्म समाज और बाद में आर्य समाज से जुड़ने और इन संस्थाओं के साथ कार्य करने से लाजपत राय को एक नया अनुभव प्राप्त हुआ। ये पूरे समाज की सेवा करना चाहते थे लेकिन साथ ही अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुँह फेरकर पिता के प्रति कृतघ्न नहीं बनना चाहते थे। वे दुविधा की स्थिति में थे और किसी एक कार्य को करने का निश्चय नहीं कर पा रहे थे। अपने कुछ मित्रों के सुझाव से इन्होंने आर्ट्स की पढ़ाई के साथ ही मुख्तारी (वकालत का डिप्लोमा) सीखने के लिये प्रवेश ले लिया।

1881 में इन्होंने मुख्तारी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। ये न्याय और अन्यायों के कार्यों में व्यस्त रहने लगे, जिसके कारण आर्ट्स की कोई भी यूनिवर्सिटी परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाये। इन्होंने मुख्तार बनकर अपने परिवार की आर्थिक सहायता करना शुरु कर दिया। अदालतों में मुख्तार के रुप में कार्य करने के लिये ये अपने पैतृक गाँव जगराव आ गये। जगराव एक छोटा सा कस्बा था। इनका अपने कस्बे और पेशे दोनों में मन नहीं लगा। वह कस्बा इनके कार्य क्षेत्र के लिये छोटा था। यहाँ देश और जाति की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था। इस कस्बे में इनका दम घुटने लगा। इस कस्बे से ज्यादा इन्हें मुख्तारी के काम से घृणा होने लगी क्योंकि यह कार्य इनके लिये अपमान जनक था और इस कार्य में सफल होने के लिये राजकर्मचारियों की चापलूसी करनी पड़ती थी जो इनके स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था।

लाला लाजपत राय जगराव की परिस्थितियों में खुद को ढ़ाल नहीं पाये और अपने पिता के पास रोहतक आ गये। रोहतक जगराव से बड़ा शहर था साथ ही यहाँ अपने कार्य को कराने के लिये सरकारी कर्मचारियों की चापलूसी नहीं करनी पड़ती थी। हालांकि वे इस कार्य को बिल्कुल नहीं करना चाहते थे पर वे पारिवारिक परिस्थितियों के सामने असहाय थे। मुख्तारी करते हुये इन्हें 200 रुपये/- मासिक मिलते थे जो इनके पिता की आय से कई गुना अधिक थे अतः इन्हें न चाहते हुये भी यह कार्य करना पड़ा। मुख्तारी का कार्य करते हुये ये इस बात को अच्छी तरह समझ गये कि यदि वकालत का कार्य करना जरुरी है तो क्यों न कानून की उच्च शिक्षा प्राप्त करके इस कार्य को किया जाये इसलिये इन्होंने इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने का निश्चय किया।

रोहतक में मुख्तारी के कार्य के साथ ही वे समाज के कार्यों से भी दूर न रह सके। रोहतक आर्य समाज की सोचनीय अवस्था थी तो उसमें नवीन स्फूर्ति देने के लिये इनको कठोर परिश्रम करना पड़ा। लाजपत राय को समय-समय पर समाज की बैठक में भाग लेने के लिये लाहौर भी जाते रहे, मुख्तारी का कार्य भी करते साथ ही कानून की परीक्षा की तैयारी भी करते, जिसका परिणाम यह हुआ कि 1883 में आयोजित वकालत की परीक्षा में असफल हो गये। इनके पिता ने दुबारा प्रयास करने की सलाह दी आखिरकार इन्होंने अपने तीसरे प्रयास में साल 1885 में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण (पास) करके वकालत की डिग्री प्राप्त कर ली।

राजनैतिक विचारों का शैशव काल और पत्र प्रकाशन का प्रारम्भिक चरण

वर्ष 1881–1883 के समय में लाला लाजपत राय राजनैतिक विचार निर्माण काल की प्रारम्भिक अवस्था (पहली स्थिति) में थे। रोहतक रहकर ये आर्य समाज के कार्यों को करते थे और डी.ए.वी. की सभाओं के कार्य के लिये लाहौर भी आते रहते थे। ये पत्रों में लेख भी लिखते थे। इनके ज्यादातर लेख अंग्रेजी में होते थे। इनके एक नवयुवक मित्र मौलवी मुहर्रम अली चिश्ती थे जो “रफीके–हिन्द” को संचालित करते थे, लाला लाजपत राय अपने इस मित्र के लिये उर्दू में भी पत्र लिखते थे।

लाजपत अपने प्रारम्भिक जीवन में सरकार के लिये आलोचनात्मक प्रवृत्ति के नहीं थे और न ही वे अपने लेखों तथा भाषणों में अँग्रेज सरकार के लिये कटु शब्दों को प्रयोग करते थे। उनमें देश प्रेम की भावनाओं के साथ ही देशवासियों की सेवा करने की प्रबल इच्छा भी थी। उस युग की परंपरा के अनुसार वे अपने भाषणों में अँग्रेज सरकार की तारीफ करते थे। वे मानते थे कि अंग्रेजों ने भारतीयों पर उपकार किया है क्योंकि ब्रिटिश सरकार के आने से देश को अत्याचारी मुस्लिम शासन से आजादी मिली है।

लाला लाजपत राय के जीवन में 1883 वो समय था जब उनके राजनैतिक जीवन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। उन्होंने प्रकाशन के लिये लेख लिखना भी शुरु कर दिया। उन्होंने आर्य समाज के लिये एक उर्दू पत्र “भारत देश-सुधारक” और एक अंग्रेजीं पत्र “रीजनरेटर ऑफ आर्यावर्त” चलाने का निर्णय लिया पर ये लाहौर से बहुत दूर रहते थे जिससे वो यह कार्य सुचारु रुप से नहीं कर पा रहे थे। अतः इन्हें ‘रफीके-हिन्द’ और अन्य किसी पत्र में अपने लेख प्रकाशित करके ही संतुष्ट रहना पड़ता था।

1886 में हिसार में जीवन और आर्य समाज का विस्तार

1885 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद लाजपत राय 1886 में एक अभियोग के सिलसिले में हिसार गये थे। इन्होंने उस स्थान को अपनी इच्छा के अनुसार जानकर वहीं रहकर कार्य करने का निश्चय किया। हिसार वो पहला स्थान था जहाँ राय ने लगातार 6 वर्षों तक लगकर कार्य किया।

लाला लाजपत राय के पहुँचने से पूर्व ही यहाँ आर्य समाज पहुँच गया था पर इसका पूर्ण रुप से विकास नहीं हो पाया था। हिसार में अपने मित्रों की सहायता से आर्य समाज के विस्तार की भूमिका तैयार की और इसका खूब विकास भी हुआ। शीघ्र ही हिसार की गिनती क्षेत्र के सर्वोत्तम आर्य समाज केन्द्रों में होने लगी। लाला लाजपत राय ने अपनी आत्म कथा में इस सफलता का श्रेय आर्य समाज के विशेष नेता दल को दिया है। इस क्षेत्र में आर्य समाज की इतनी बड़ी सफलता का मुख्य कारण इसे जनसाधारण का आन्दोलन बनाया जाना और इसे कृषक वर्ग से जोड़े जाना था। हिसार में यह कृषक वर्ग की संस्था थी न कि बाबू वर्ग की और यही इस संस्था की सफलता का केन्द्र बिन्दु भी था।

लाला लाजपत राय का काँग्रेस से जुड़ना

जिस समय लाजपत राय हिसार में थे उस समय काँग्रेस एक नये जन्में शिशु की तरह थी। 1885 में काँग्रेस का पहला अधिवेशन बम्बई (मुम्बई) हुआ था। इस अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचन्द्र सी. बेनर्जी ने की थी। अपने जिज्ञासु स्वभाव के कारण लाजपत राय ने इस नये आन्दोलन को बड़ी उत्सुकता से देखना शुरु कर दिया। इनके मित्र मूलराज (आर्य समाज के नेता) सदैव काँग्रेस की गतिविधियों को शक की नजर से देखते थे। क्योंकि उनका मानना था कि इस संगठन की स्थापना एक अँग्रेज ने की है तो यह राष्ट्र हित की बातें कैसे कर सकता है।

प्रारम्भ में लाला लाजपत राय भी यही मानते थे पर उनका काँग्रेस में यह अविश्वास ज्यादा समय तक नहीं रहा। 1888 में जब अली मुहम्मद भीमजी काँग्रेस की ओर से पंजाब के दौरे पर आये तो लाला लाजपत राय ने इन्हें अपने नगर (हिसार) में आने का निमंत्रण दिया और साथ ही एक सार्वजनिक सभा का आयोजन भी किया। ये काँग्रेस से इनका पहला परिचय था जिसने इनके जीवन को एक नया राजनीतिक आधार प्रदान किया।

सर सैयद अहमद खाँ को खुला पत्र

लाला लाजपत राय के पिता राधाकृष्ण, सर सैयद के बहुत बड़े प्रशंसक थे। वे सैयद को 19वीं शताब्दी का पथप्रदर्शक मानते थे और अपने गुरु से कम नहीं मानते थे। राधाकृष्ण लाजपत राय को हमेशा सैयद का पत्र “सोशल रिफार्मर” को पढ़कर सुनाते थे और राय भी इनके अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट गजट के सभी लेखों को ध्यान से पढ़ते थे और इन्हें अपने पिता की धरोहर समझकर संभाल कर रखते थे।

राय को शुरु से ही इनके पिता ने सर सैयद की सभी बातों का सम्मान करना सिखाया था पर अब वे बचपन की भ्रान्तियों से निकल चुके थे और देश के वास्तविक परिवेश को समझ रहे थे। जब काँग्रेस का उदय हुआ तो सर सैयद अहमद खाँ ने मुस्लिम सम्प्रदाय की ओर से इसका विरोध शुरु कर दिया और अपने सहधर्मियों को इस आन्दोलन से अलग रहने के लिये सलाह देना शुरु कर दिया। सैयद का मानना था कि इससे मुसलमानों के हितों को हानि पहुँचेगी।

लाला लाजपत राय ने जब सर सैयद को इस नए देश के विरोधी के रुप में देखा तो उनके दिल में सैयद के लिये जो थोड़ी बहुत श्रद्धा बची थी वह और भी घट गयी। उन्होंने सर सैयद के नाम से खुले पत्र लिखे जो क्रमशः 27 अक्टूबर 1888, 15 नवम्बर 1888, 22 नवम्बर 1888 और 20 दिसम्बर 1888 को एक उर्दू पत्र “कोहे-नूर” में प्रकाशित हुये। इन पत्रों में लाला लाजपत राय ने खुले शब्दों में सैयद के बदले हुये स्वभाव पर सवाल किये। राय के ये पत्र “आपके एक पुराने अनुयायी के पुत्र” के नाम से प्रकाशित किये गये थे।

लाला लाजपत राय द्वारा सर सैयद को खुले पत्र लिखने का कारण कोई पारस्परिक द्वेश की भावना नहीं थी बल्कि सर सैयद का बदला हुआ स्वरुप था। उन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से सर सैयद के दोगले स्वभाव से देशवासियों को परिचित कराना आवश्यक समझा इसलिये खुले पत्र लिखे।

राजनैतिक पृष्ठभूमि

सर सैयद अहमद खाँ को लिखे गये खुले पत्रों ने इन्हें एक राजनैतिक नेता के रुप में प्रसिद्ध कर दिया। काँग्रेस को इनके खुले पत्रों से बहुत सहायता प्राप्त हुयी। काँग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम ने लाला लाजपत राय से इन खुले पत्रों की एक किताब लिखकर प्रकाशित करने को कहा। राय ने ऐसा ही किया और यह किताब काँग्रेस के अगले अधिवेशन से पूर्व ही प्रकाशित हो गयी। इस प्रकाशन ने हिसार के एक वकील को रातों रात प्रसिद्ध कर दिया साथ ही राजनीति में प्रवेश करने का सीधा मार्ग खोल दिया।

इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद इन्हें काँग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने के लाये आमंत्रित किया गया। लालजपत राय जब अधिवेशन में भाग लेने पहुँचे उस समय प्रयाग स्टेशन पर इनका स्वगात मदन मोहन मालवीय और अयोध्यादास ने किया। इस समय ये सर सैयद की पोल खोलने वाले विवादी के रुप में प्रसिद्ध हो गये थे।

काँग्रेस के साल 1888 के अधिवेशन में इनके दो भाषण हुये जिसमें से पहले भाषण का विषय खुली चिठ्ठी थी। इनके पहले भाषण को अधिक प्रशंसा मिली क्योंकि उस भाषण का सम्बंध समसामयिक मामले से था। इसी भाषण ने दूसरे भाषण की नींव भी रखी थी। वर्ष 1888 की काँग्रेस में दिये गये भाषण इनकी दूरदर्शिता को प्रदर्शित करते हैं। इन्होंने काँग्रेस में अपना पहला भाषण उर्दू में दिया था और यह प्रस्ताव भी पेश किया कि आधा दिन देश की शिक्षा के साथ- साथ औद्योगिक मामलों पर विचार करने के लिये पृथक किया जाये।

काँग्रेस में यह प्रस्ताव स्वीकार हो गया, तब से ही काँग्रेस के अधिवेशन के साथ औद्योगिक प्रदर्शनियों का भी आयोजन होना शुरु हो गया। जिस समय काँग्रेस की सभी कार्यवाही अंग्रेजी में होती थी उस समय इन्होंने हिन्दी भाषा का प्रयोग करके यह भी जता दिया कि यदि हमें काँग्रेस के महत्वपूर्ण मामलों में भाग लेना है तो सही अर्थों में जनता का प्रतिनिधि बनने का प्रयत्न करना होगा। इन्होंने औद्योगिक प्रदर्शनियों को लगाने का प्रस्ताव पेश करके यह भी सिद्ध कर दिया कि ये केवल राजनीतिज्ञ ही नहीं थे बल्कि रचनात्मक कार्यों को भी महत्व देते थे।

वर्ष 1888 की काँग्रेस ने इन्हें सीधे तौर पर राजनीतिक कार्यों से जोड़ दिया था। इन्होंने पहले तीन अधिवेशनों को छोड़कर अधिकांश अधिवेशनों में भाग लिया और अपने जीवन के शेष 40 साल काँग्रेस की सेवा में अर्पित कर दिये। बीच बीच में ये काँग्रेस के कार्यों के प्रति उदासीन भी रहे पर काँग्रेस के उद्देश्यों से कभी मतभेद नहीं हुआ।

लाला लाजपत राय ने 1889 के अधिवेशन को लाहौर में आयोजित करने के लिये कहा पर इसके लिये बम्बई को चुना गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता चार्ल्स ब्रेडला ने की। इसी अधिवेशन में इनकी मुलाकात चार्ल्स ब्रेडला और ह्यूम से हुई। इस अधिवेशन का इनके मन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इन्होंने महसूस किया कि काँग्रेस के नेताओं को देश हित की अपेक्षा अपने नाम तथा शान की अधिक चिन्ता है। इस अधिवेशन ने उन्हें काँग्रेस के प्रति उदासीन बना दिया और 1890-1893 तक इन्होंने इसके किसी भी अधिवेशन में भाग नहीं लिया।

आर्य समाज में विवाद

आर्य समाज के दो दलों का नेतृत्व गुरुदत्त और साईं दास कर रहे थे। 1883 में स्वामी दयानन्द की मृत्यु के समय के दौरान गुरुदत्त स्वामी जी की सेवा के लिये उनके साथ ही थे। गुरुदत्त ने स्वामी जी को जीवन के अन्तिम समय में शान्त और गम्भीर देखा था जिसके कारण ये और भी कट्टर आर्य समाजी बन गये। ये किसी भी प्रकार के समाज के नियमों का उल्लंघन सहन नहीं कर पाते थे। इस प्रकार आर्य समाज दो दलों में विभक्त हो गया, एक दल पूर्णत: कट्टर सिद्धान्तों का पालन करने वाला जिसका नेतृत्व गुरुदास कर रहे थे और दूसरा सामान्य विचारों को मानने वाला जिसके नेता साईंदास थे।

गुरुदत्त की मृत्यु और उसके कुछ महीने बाद साईंदास की मृत्यु के बाद दोनों दल एक दूसरे से स्वंय को श्रेष्ठ साबित करने में लग गये। दोनों दलों द्वारा स्वंय श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में विवाद बढ़ने लगा। इस विवाद ने एक नया रुप ले लिया और विवाद का आधार शाकाहार और माँसाहार भोजन व विद्यालय समीति के लिये निर्धारित पाठ्यक्रम हो गया। इस प्रकार समाज की निर्मित संस्था और मंदिर पर अपने–अपने दल का अधिकार जमाने के लिये संघर्ष तेज हो गया। कोई न्यायालय द्वारा मंदिर पर अधिकार जमाना चाहता था, कोई पुलिस की सहायता लेकर और कोई स्वंय ही लाठी-डण्डे के जोर पर अपना प्रभुत्व जमाना चाह रहा था।

लाला लाजपत राय के कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते ही यह फूट दिनों दिन बढ़ रही थी। कुछ समय तक उन्होंने तटस्थ रहने का प्रयास किया किन्तु रह न सके। वे आहार और भाषा के अनुसार संस्था का निर्माण करना नहीं चाहते थे। उन्होंने समाज में प्रवेश देशभक्ति के कारण किया था। उनका उद्देश्य देशवासियों की सेवा करना था न कि अपनी प्रभुता को स्थापित करना अतः उन्होंने अपने मित्र हंसराज का समर्थन किया और उनके दल का साथ दिया।

जब विभिन्न दलों में बँटा हुआ आर्य समाज, समाज के मंदिर पर अलग अलग तरीके से अधिकार जमाना चाहते थे उस समय लाला लाजपत राय ने अपने दल का नेतृत्व करते हुये उदारता पूर्वक भाषण दिया–

“समाज सिद्धान्तों का नाम है न कि ईंट-पत्थर का। हम जनता की सेवा तथा अपने जीवन के सुधार के लिये दल में शामिल हुये है, न कि मकानों पर अधिकार जमाने अथवा उन पर लड़ने-झगड़ने के लिये। निस्संदेह (बिना किसी शक के) आप लोगों ने काफी धन तथा समय के व्यय से मन्दिर निर्माण किया है, परन्तु आप में यदि धर्म की भावना प्रबल है तो आप इससे अधिक शानदार भवन बनवा सकते है। मैं तो लड़ाई-झगड़े, पुलिस बुलाने अथवा न्यायालय की सहायता लेने के सर्वथा विरुद्ध हूँ।”

लाजपत राय की यह उदारतापूर्ण अपील सफल हुई। दल के पृथक होने का प्रस्ताव पास कर दिया गया और आर्य समाज, अनारकली की स्थापना की नींव रखी गयी। वच्छावाली समाज के मंदिर को त्यागने का दुख लाला हंसराज को बहुत ज्यादा हुआ फिर भी वे सहमत हो गये। एक नये मंदिर का निर्माण हुआ जो एक हाते की तरह था। यहाँ समाज के सतसंग के लिये एक अन्दर वाला मकान तथा आँगन किराये पर लिया गया। एक प्रेस थी जिसमें “भारत सुधार पत्र” छपता था। लाला लाजपत राय इस समाज के प्रधान चुने गये।

प्रधान के रुप मे नयी जिम्मेदारी आ जाने के कारण लाला लाजपत राय को और भी कठिन परिश्रम करना पड़ता था। एक तरफ वकालत में सफल होने के लिये मेहनत और दूसरी तरफ सार्वजनिक जीवन में काम करने के लिये उससे अधिक मेहनत करनी पड़ती थी। कचहरी से छुट्टी होते ही वे कॉलेज के निर्माण के लिये धन संग्रह करने के लिये चले जाते थे। वे कॉलेज के मुख्य वक्ता होने के साथ ही प्रधान भिक्षुक भी थे। लाला लाजपत राय ने, अपनी आत्मकथा में 1893 के अपने उत्तरदायित्वों का वर्णन इस प्रकार किया है–

“1. मैं डी.ए.वी. कॉलेज कमेटी का जनरल सेकेटरी था।

  1. मैं लाहौर आर्य समाज का प्रधान था।
  2. मैं ‘दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज समाचार’ का सम्पादक था।
  3. मैं ‘भारत सुधार’ और ‘आर्य समाज मैसेंजर’ के लिये लेख लिखा करता था। कभी कभी तो ‘भारत सुधार’ का पूरा कार्य भार मुझ पर होता था।
  4. मुझे कॉलेज के लिये धन संग्रह करने के लिये जाना पड़ता था।
  5. इन सब के अतिरिक्त मुझे वकालत द्वारा रोटी भी कमानी पड़ती थी।”

काँग्रेस का लाहौर अधिवेशन 1893

1893 के बम्बई अधिवेशन के बाद लाला लाजपत राय काँग्रेस की ओर से उदासीन हो गये थे। इन्होंने चार्ल्स ब्रेडला की अध्यक्षता वाले बम्बई अधिवेशन के बाद किसी भी अधिवेशन में भाग नहीं लिया था। 1893 में डी.ए.वी. कॉलेज के एक नेता जोशीराम बख्शी ने पंजाब में काँग्रेस का अधिवेशन निमंत्रित किया। इसकी स्वागत सभा में लाला लाजपत राय भी शामिल थे किन्तु वे उसके सक्रिय सदस्य नहीं थे। इस अधिवेशन में इन्होंने दो-तीन भाषण दिये।

लाहौर अधिवेशन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष लाला लाजपत राय की पूना के दो महान नेताओं से भेंट थी। ये दो महान नेता कोई और नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक थे। यह परिचय आगे चलकर बहुत घनिष्ट मित्रता में परिवर्तित हुआ।

लेखन कार्य की शुरुआत

लाला लाजपत राय ने महसूस किया कि देशवासियों में देशप्रेम की भावना तथा स्वाभिमान को जाग्रत करने के लिये महापुरुषों की जीवनी को पढ़ना चाहिये। इसमें सबसे बड़ी समस्या थी कि अधिकांश किताबें अंग्रेजी में थी और भारत के सभी लोग अंग्रेजी नहीं जानते इसलिये इन्होंने उर्दू में एक पुस्तक-माला ‘संसार के महापुरुष’ के नाम से लिखने का निश्चय किया। इस पुस्तक माला के क्रम में इन्होंने मेजिनी, गेरिबाल्डी, दयानन्द सरस्वती और युगपुरुष भगवान श्री कृष्ण के चरित्र का वर्णन किया है।

यह विचार इन्हें अपने इटालियन गुरु जोसेफ मेजिनी के चरित्र के अध्ययन से आया। लाला लाजपत राय ने सबसे पहले मेजिनी की पुस्तक “मनुष्य के कर्तव्य” का उर्दू का अनुवाद किया। इन्होंने रोहतक व हिसार में वकालत करने के दौरान मेजिनी का सर्वप्रिय जीवन चरित्र लिखा और इसके बाद गेरिबाल्डी के जीवन चरित्र की रचना की। मेजिनी इटली का एक राजनीतिज्ञ और पत्रकार था जिसने इटली को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया था। उसके प्रयासों के कारण स्वतंत्र और संगठित इटली का निर्माण हुआ था।

उसने आधुनिक यूरोप के प्रसिद्ध लोकतांत्रिक गणतंत्रात्मक राज्य की व्याख्या की थी। गेरिबाल्डी इटली का प्रसिद्ध देशभक्त था जो मेजिनी के ‘युवा इटली’ के आन्दोलन का प्रबल समर्थक था। इसने इटली में मेजिनी के आन्दोलनों और विचारों को आगे बढ़ाने का कार्य किया था। इन रचनाओं को लिखकर प्रकाशित करने के पीछे राय का राजनीतिक उद्देश्य निहित था। उनका मानना था कि भारत के प्रत्येक नागरिक को इनके कार्यों से प्रेरणा लेकर अपने देश की आजादी के लिये संघर्ष में भाग लेना चाहिये।

इनके विचार से भारत की स्थिति बहुत हद तक इटली जैसी थी और मेजिनी ने जो शिक्षा दी थी वह केवल यूरोप या इटली के लिये नहीं थी वह तो पूरे संसार भर के लिये थी। लाला लाजपत राय भी उसके असंख्य भक्तों में से एक थे अतः उन्होंने भारत की समस्या का हल इटली के एकीकरण में पाया। मेजिनी की शिक्षा को लोगों तक पहुँचाने के लिये इन्होंने इसके चरित्र का वर्णन किया। इटली में मेजिनी के कार्यों और विचारों को गेरिबाल्डी ने आगे बढ़ाया था, इसलिये इसके चरित्र की भी रचना की। इन रचनाओं को लिखकर प्रकाशित करके पंजाब के युवा वर्ग में देश प्रेम की भावना को जाग्रत करना था जिसमें वे बहुत हद तक सफल भी हुये।

लाला लाजपत राय ने इन दो चरित्रों के वर्णन के बाद शिवाजी का चरित्र चित्रण किया। इनकी यह तीनों पुस्तक 1896 में प्रकाशित हो गयी। इन्होंने शिवाजी के चरित्र चित्रण के द्वारा उस समय शिवाजी के बारे में व्याप्त विभिन्न भ्रमों को दूर कर दिया। इनके समय में लोग शिवाजी को एक लुटेरा, छिपकर आक्रमण करने वाला, पहाड़ी चुहा मानते थे। इस जीवनी के प्रकाशित होते ही सारी परिस्थितियाँ बदल गयी लोग शिवाजी की हंसी उड़ाने और निंदा करने के स्थान पर उनकी पूजा व प्रशंसा करने लगे।

1898 में उन्होंने दयानंद सरस्वती और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर पुस्तक लिखी। दयानंद पर लिखी पुस्तक की उपयोगिता इतनी ही थी कि बस उससे स्वामी जी के जीवन की मुख्य घटनाएँ और बाल्यकाल की कुछ रोचक बातें ही ज्ञात हो पाती थी।

स्वंयसेवक दल का जन्म और संगठन

वर्ष 1897 में देश के सामने भयंकर परिस्थितियाँ उपस्थित हुई। बम्बई में प्लेग की महामारी और राजपूताने में सूखे के कारण अकाल का भीषण रुप दिखा। देश में हर जगह से कष्ट के समाचार आने लगे। इन सारे समाचारों से लाला लाजपत राय का हृदय करुणा से भर जाता। वे देशवासियों की सहायता करने के लिये बैचेन हो गये। लाला लाजपत राय के हृदय पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। एक तरफ इस भीषण प्राकृतिक आपदा के समाचार दूसरी तरफ ईसाई प्रचारकों द्वारा अपने धर्म प्रचार से वशीभूत होकर भोली-भाली भारतीय जनता के दुरुपयोग के समाचारों ने इन्हें व्याकुल कर दिया।

19 वीं शताब्दी के अन्त का समय भारतवर्ष के लिये महान कष्टकारी था। लाला लाजपत राय ने अपनी वक्तृत्व कला, तर्क शक्ति, संचालन, संगठन तथा नियंत्रण की प्रतिभा का पूर्णं प्रयोग किया। इन्होंने अकाल पीड़ित देशवासियों की सेवा के लिये बहुत प्रयास किये। इन्होंने स्वंयसेवक दल का निर्माण करके, अनाथालयों तथा शरणगृहों की स्थापना की। हांलाकि यह सभी कार्य इन्होंने आर्य समाज के अन्तर्गत किये पर वे केवल हिन्दू मात्र को सम्बोधित करते थे।

अपने कार्यों एंव विचारों के द्वारा शीघ्र ही इन्हें आर्य समाज के साथ साथ सनातन धर्म का भी पूरा सहयोग प्राप्त हुआ। पीड़ितों की सहायता के लिये कमेटियों को संगठित किया। डी.ए.वी. कॉलेज के विद्यार्थियों से सम्पर्क होने के कारण स्वंयसेवक दल की भी सेवाएं प्राप्त होने लगी। इनका मानना था कि केवल अस्थाई सहायता ही पर्याप्त नहीं है, स्थायी अनाथ आश्रमों की स्थापना भी आवश्यक है जो भविष्य में इस तरह की प्राकृतिक आपदा आने पर पुनः प्रयोग में आ सके और जहाँ शरणागत बच्चों को अच्छे नागरिक बनने की शिक्षा दी जा सके। उन्होंने कार्यकर्ताओं को सहायता के कार्य में शिशुओं, विधवाओं तथा अल्पवयस्क व वयस्क लड़कियों की ओर विशेष ध्यान देने का निर्देश दिया क्योंकि ईसाई मिशनरी इन्हें आसानी से अपने झाँसे में फँसा सकते थे। इन्होंने यह भी कहा कि जहाँ तक सम्भव हो सहायता दान के रुप में न की जाये। प्रत्येक व्यक्ति को काम करके रोटी कमाने का अवसर दिया जाये।

लाला लाजपत राय की दूरदर्शिता तथा प्रेरणा के परिणाम स्वरुप फिरोजपुर में प्रसिद्ध आर्य अनाथालय की स्थापना हुई साथ ही इन्हें उसका मंत्री बनाया गया। इन्होंने कई वर्षों तक इस पद पर सफलता पूर्वक कार्य भी किया। इसी क्रम में लाहौर तथा मेरठ में भी हिन्दू अनाथालयों की स्थापना हुई। लाला लाजपत राय की प्रेरणा से और भी कई स्थानों पर अनाथ आश्रम खोले गये। इनके मन में संकीर्णता की भावना कभी नहीं आयी। उनके इस कार्य के बाद देश के कोने कोने में इनका नाम प्रसिद्ध हो गया था। ये अब एक जनप्रिय नेता बन गये थे।

जीवन के लिये संघर्ष (1897-98)

लाला लाजपत राय की आत्मकथा से पता चलाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कठोर परिश्रम किया तथा उन्हें समय समय पर बहुत सी परेशानियों का सामना भी करना पड़ता था। अकाल के समय में इतने कठोर परिश्रम के बाद इनका अस्वस्थ्य होना स्वभाविक था। इस दौरान इन्हें निमोनिया हो गया फेंफड़ों से संबंधित बीमारी हो गयी। इनके जीवन को बचाने के बहुत कम आसार नजर आने लगे। ये लगभग 2 महीने तक बिस्तर पर रहे। इस दौरान डॉ. बेलीराम ने एक कुशल नर्स की तरह इनकी चिकित्सा तथा देखभाल की जिससे इनके प्राणों की रक्षा हुई।

वैवाहिक जीवन

लाला लाजपत राय का विवाह 13 वर्ष की छोटी सी आयु में ही हो गया था। इनकी पत्नी का नाम राधा था। राधा देवी बहुत ही सम्पन्न परिवार से थी। लाला लाजपत राय ने कभी खुद को इस विवाह में नहीं बांधा वे स्वछंद होकर अपने कार्यों को करते थे। किसी भी कार्य को करने के लिये इनके लिये यह आवश्यक नहीं था कि ये अपनी पत्नी से परामर्श लें। इन्हें अपनी पत्नी से बहुत अधिक प्रेम नहीं था पर वे अपने पति होने के प्रत्येक कर्तव्य को पूरा करते थे। इनके तीन बच्चे थे, जिनमें दो पुत्र और एक पुत्री थी। इन सभी बच्चों का जन्म 1890-1900 के बीच में हुआ था। इनके दोनों पुत्रों का नाम क्रमशः प्यारे लाला व प्यारे कृष्ण और पुत्री का नाम पार्वती था जिससे इन्हें बहुत ज्यादा स्नेह था।

अपने पूरे वैवाहिक जीवन में लाला लाजपत राय कभी प्रेमी नहीं बन सके। इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि उन दिनों की परम्परा के अनुसार इनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया था और विवाह के कई वर्ष बाद तक भी पति-पत्नी को साथ रहने का कोई अवसर नहीं मिला। इनका जीवन घरेलू झगड़ों से मुक्त था। अपने किसी भी कार्य में इनके लिये अपनी पत्नी की सहमति आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन ये अपने माता–पिता से अवश्य ही अनुमति लेते थे।

वकालत छोड़ पूरी तरह से समाज सेवा में लगना

लाला लाजपत राय शुरु से ही अपना जीवन देश सेवा के लिये अर्पित करना चाहते थे किन्तु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण मजबूर होकर इन्हें वकालत का कार्य करना पड़ता था। कई बार तो इनका मन करता था कि सब काम छोड़कर पूरी तरह से समाज सेवा में लग जाये लेकिन अपने पिता के प्रति कृतघ्न होने के लिये इनका दिल गवाही नहीं देता था। अतः मन मारकर ये वकालत के कार्यों को करते थे। इन्होंने इस बात का जिक्र अपनी आत्मकथा में किया है–

“वकालत का कार्य मेरी रुचि के अनुकूल न था। मैं इसे त्यागकर देश सेवा के कार्य में दत्तचित होकर लगना चाहता था, परन्तु मेरे पिता जी इसमें बाधक थे। उनकी इच्छा थी कि मैं काफी धन जोड़ लूँ तथा अपने भाईयों और बच्चों के लिये पर्याप्त प्रबन्ध करुँ। मैं उत्तर दिया करता था कि मैं अपने भाईयों को शिक्षित करने का कर्तव्य पालन कर चुका हूँ, और बच्चों के निर्वाह के लिये मेरे पास काफी धन है।”

लाला लाजपत राय के कहने पर इनके पिता राधाकृष्ण बहुत पहले ही अपनी नौकरी छोड़ चुके थे और अब ये नहीं चाहते थे कि पुत्र युवा अवस्था में ही वकालत छोड़ दे। इस बात पर कई बार दोनों पिता पुत्र की बहुत बहस भी होती थी। आखिरकार 1898 के आर्य समाज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अपने निश्चय की घोषणा कर दी कि –“मैं भविष्य में अपने वकालत का कार्य घटाता जाऊंगा और कॉलेज, आर्य समाज व देश सेवा में अधिकाधिक समय दिया करुंगा।”

इस घोषणा के बाद उन्होंने डी. ए. वी. कॉलेज के भवन के एक कमरे में अपना ऑफिस खोल लिया और जब वे दौरे पर कहीं बाहर नहीं जाते तो उस ऑफिस में बैठकर कॉलेज तथा वकालत के कार्यों को देखते। अब तो ये समाज के कार्यों को करने के लिये अक्सर लाहौर से बाहर रहते थे। उनकी घोषणा के बाद समाज से संबंधित सभी कॉलेज के दलों ने उन्हें प्रत्येक वार्षिकोत्सव में आमंत्रित करना अपना परम कर्तव्य मान लिया। इन्होंने स्कूल के विद्यार्थियों के लिये ऊर्दू में एक पुस्तक लिखी जिसमें भारत की प्राचीन सभ्यता का वर्णन था।

यह भारतीय इतिहास के हिन्दूकाल पर उनकी विस्तृत पुस्तक की भूमिका मात्र थी। इन्होंने पाठ्यशालाओं के लिए अंग्रेजी की किताब भी संकलित की। इनके कार्यों से ऐसा लगने लगा था कि इन्होंने पूर्ण रुप से शिक्षक बनने का निश्चय कर लिया हो परन्तु इन्होंने 3 महीने से ज्यादा शिक्षण कार्य नहीं किया। 2 साल बाद इन्होंने यह निश्चय कर लिय कि अब जो भी कुछ वकालत से कमायेंगे, वह सब दान कर देंगे। इन्होंने पत्र लिखकर यह सूचना अपने मित्र हंसराज को दी और कई सालों तक ये अपनी वकालत की सारी आय डी. ए. वी. कॉलेज के लिये दान में दे देते।

ये सेवा के कार्यों में कोई रुकावट पसंद नहीं करते थे। इनकी इस त्याग की भावना का देश की जनता पर भारी प्रभाव पड़ा। धन के प्रति त्याग की भावना और इनके भाषण से सम्मोहन करने की कला ने इन्हें सफल भिक्षुक बना दिया। आर्य समाज के वार्षिकोत्सवों पर धन संग्रह के लिये ये ही अपील करते और इनके भाषण से प्रभावित होकर बड़े से बड़ा कंजूस भी दान देने के लिये तैयार हो जाता, जिससे समाज तथा कॉलेजों की दशा में बहुत सुधार हुआ।

साप्ताहिक पत्र पंजाबी का प्रकाशन

साल 1898 के अंत में हुई ड़ेढ़ साल की लम्बी बीमारी और भारत में भीषण अकाल की समस्याओं को बड़ी कुशलता से पार करने के बाद लाला लाजपत राय ने 20 वीं शताब्दी में नये और विशाल दृष्टिकोण के साथ प्रवेश किया। उनमें एक नयी शक्ति और ऊर्जा का संचार हो रहा था ऐसे में शिथिल पड़ गये जन जागृति के कार्य को आगे बढ़ाने के लिये एक साप्ताहिक पत्र के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। इस साप्ताहिक पत्र का नाम “पंजाबी” रखा गया।

इस पत्र का मैनेजर जसवन्त राय को बनाया गया। इस पत्र के प्रकाशन का जनता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा और लोगों ने महसूस किया कि यह पत्र निर्भीकता के साथ जनता का पक्ष लेगा क्योंकि पत्र की नीति लाला लाजपत राय के द्वारा निर्धारित होंगी। लाला लाजपत राय के सुझाव पर इस पत्र का सम्पादक के. के. अथावले को नियुक्त किया गया। इस पत्र का उद्देश्य पंजाब को आने वाले संघर्ष के लिये तैयार करना था। इसमें ऐसे लेखों को प्रकाशित किया जाता जो लोगों को देश में चल रही राजनैतिक गतिविधियों से अवगत कराने के साथ ही देश पर उनके अच्छे और बुरे प्रभाव के बारे में भी जागरुक करने का कार्य करता था।

दक्षिण भारत की प्रथम यात्रा, गोखले व बहन निवेदिता से मुलाकात और इंग्लैण्ड़ जाने की भूमिका का निर्माण

लाला लाजपत राय अपने मित्र द्वारकादास के साथ काँग्रेस से पुनः संबंध स्थापित करने के लिये 1904 के बम्बई अधिवेशन में शामिल होने के लिये गये। किन्तु काँग्रेस अभी भी अपने पुराने ढर्रें पर चल रही थी। अभी तक उसमें किसी भी स्थापित विधान का निर्माण नहीं हो पाया था।

इस अधिवेशन की समाप्ति पर लाला लाजपत राय जहाज से लंका की यात्रा पर गये। ये दक्षिण भारत का इनका प्रथम दौरा था। ये मद्रास में तीन दिन के लिये जी. सुब्रह्यैया के घर मेहमान रहे और वहां से कलकत्ता के लिये चले गये। कलकत्ता में इनकी गोपाल कृष्ण गोखले से पहली मुलाकात हुई। ये गोखले के एक दर्शक के रुप में कौंसिल हॉल में गये जहाँ लार्ड कर्जन के विश्वविद्यालय एक्ट की अनियमितताओं की स्वीकृति के विषय पर बहस हो रही थी।

गोखले के अलावा लाला लाजपत राय की बहन निवेदिता के साथ भी मुलाकात हुई। राय निवेदिता के लेखों से पहले से ही प्रभावित थे क्योंकि उनके राजनीतिक में वही सिद्धान्त थे जिनकी व्याख्या मेजिनी ने की थी। सिस्टर निवेदिता भी कट्टर हिन्दू थी और ब्रिटिश राज्य से घृणा व भारतवासियों से बहुत प्रेम करती थी। लाला लाजपत राय की इनसे मुलाकात बहुत थोड़े से समय के लिये ही हुई थी पर यह इनके जीवन की कभी न भुलायी जाने वाली स्मृतियों में शामिल हो गयी।

जब लाला लाजपत राय की गोखले जी से मुलाकात एक स्थायी मित्रता में परिवर्तित हो गयी थी। हांलाकि दोनों के राजनैतिक विचारों में जमीन आसमान का अंतर था फिर भी इनमें परस्पर मुठभेड़ कभी भी नहीं हुई। जब काँग्रेस के प्रचार के लिये भारत से एक शिष्ट मण्डल को भेजने का निर्णय लिया गया तो गोखले जी ने राय को भी शिष्टमण्डल के साथ भेजने का प्रस्ताव रखा जिसपर सभी ने सहमति दे दी। लाजपत राय पहली बार किसी राजनीतिक दौरे के लिये देश से बाहर जा रहे थे इसलिये इन्होंने इंग्लैण्ड जाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

इंग्लैण्ड में लाला लाजपत राय (1904-05)

  • 10 जून 1905 में लंदन पहुँचे।
  • दादा भाई नौरोजी से मुलाकात।
  • इंडियन सोशियालॉजिस्ट पत्रिका के संपादक श्याम जी कृष्ण वर्मा से मुलाकात।
  • अपने साप्ताहिक पत्र पंजाबी के लिये “भारत तथा ब्रिटिश दलों की नीति” के नाम से लेख लिखकर भेजा जिसमें इस बात की व्याख्या की कि अनुदार व उदार दल की नीतियों में कोई भेद नहीं है।
  • बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ के निमंत्रण पर श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ भोज में शामिल हुये और इंग्लैंण्ड की महारानी से मुलाकात की।
  • पंजाबी सरदार दीवान बदरीनाथ के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका का भ्रमण।
  • अक्टूबर 1905 में लंदन से वापस आये।

बंग भंग आन्दोलन और काँग्रेस का विभाजन

1905 में इंग्लैण्ड यात्रा से लौटने पर लाला लाजपत राय का बनारस स्टेशन पर बहुत बड़ी भीड़ ने स्वागत किया। अपने स्वागत के लिये उपस्थित जनसमूह को देखकर आने वाली स्थिति के सम्बन्ध में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था। हर कोई उनकी प्रशंसा करता था पर विद्यार्थी दल तो उनकी पूजा करता था। वे विद्यार्थी समाज के लिये भगवान का रुप थे।

1905 देश के लिये महान कष्टकारी सिद्ध हुआ। भारत का बंगाल से विभाजन कर दिया गया। जगह जगह बंग भंग के विरोध में प्रदर्शन किये गये। बारीसाल में ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा जनता पर लाठी चार्ज किया गया। जिसके विरोध में पहली सभा लाहौर में की गयी। काँग्रेस में भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन हुई जिनसे इसकी आन्तरिक फूट सभी के सामने उजागर हो गयी। एक तरफ तो देश भीषण अकाल से पूरी तरह से उबर भी नही पाया था कि कर्जन की नीतियाँ आग में घी डालने का कार्य कर रही थी।

इतने पर भी अंग्रेजी सरकार ने देशवासियों का ध्यान धरने से हटाकर स्वागत के जुलूसों पर लगाने के लिये प्रिंस ऑफ वेल्स को आमंत्रित कर दिया। जिस पर देश की जनता का रोष और भी फूट पड़ा। जनता के दिलों में ब्रिटिश शासन के लिये नफरत और भी ज्यादा बढ़ गयी और यही वजह काँग्रेस में दो दलों में विभाजित होने का कारण बनी क्योंकि नरम दल के नेता प्रिंस के स्वागत करने के पक्ष में थे और गरम दल के नेता इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे। इस प्रस्ताव पर गरम दल के नेताओं ने सभा से वाक् आउट किया और काँग्रेस ने तथाकथित स्वागत प्रस्ताव पास कर लिया।

लाल, बाल, पाल आन्दोलन

विचारों और कार्य करने की प्रणाली में अन्तर होने के कारण काँग्रेस दो दलों- नरम दल व गरम दल में विभाजित हो गयी। नरम दलों के नेताओं में दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले व फिरोजशाह मेहता और गरम दल के नेताओं में अरविंद घोष, विपिन चन्द्र पाल, बाल गंगाधर तिलक व लाला लाजपत राय प्रमुख थे। नरम दल के नेताओं का मानना था कि अंग्रेजी सरकार से धीरे धीरे अपनी नीतियों को मनवाकर पूर्ण स्वराज्य की ओर अग्रसर हुआ जाये।

इस दल के नेता अंग्रेजी नीतियों में विश्वास करते थे और इनकी नीतियों को देश के हित में मानते थे। वहीं दूसरी ओर गरम दल के नेताओं की अंग्रेजों में कोई आस्था नहीं थी क्योंकि वे जानते थे कि अंग्रेजों की नीतियाँ सिर्फ हाथी के दाँतों की तरह है जो केवल ऊपरी रुप से देखने में बहुत अच्छी लगती है और लगता था कि राष्ट्र हित में है परन्तु वास्तविकता में भिन्न है। ब्रिटिश नीतियों का निर्माण केवल अपने उपनिवेशवादी राज्य को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ही होता है अतः गोरो पर यह विश्वास करना कि वे हमें स्वराज्य प्रदान करेंगे केवल एक कोरी कल्पना थी।

बंगाल विभाजन के विरोध में लाल, बाल, पाल (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल) के नेतृत्व में एक नये दल का निर्माण हुआ। इस नये दल में बंगाल के अग्रगामी राष्ट्र नेता, महाराष्ट्र के तिलक और उनका पत्र “केसरी”, पंजाब में लाला लाजपत राय और उनका पत्र “पंजाबी” शामिल थे। जिनका मुख्य उद्देश्य स्वदेशी और बहिष्कार के आन्दोलन को दृढ़ता के साथ मजबूती प्रदान करना था। बंगाल के विभाजन को रद्द करने के लिये बंग-भंग आन्दोलन अपने जोरों पर था। जगह जगह बहिष्कार सभाएँ तथा धरनों का आयोजन किया जा रहा था।

इस नए दल के प्रमुख वक्ता विपिन चन्द्र पाल थे। वे बहिष्कार आन्दोलन को और भी ज्यादा विशाल बना रहे थे। इस आन्दोलन के कार्यकर्ता यह सुनिश्चित कर रहे थे कि विदेशी शासकों और सरकारी मशीनों के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क स्थापित न हो। इन आन्दोलनों से घबराकर अंग्रेजी सरकार ने कई पागलों वाले कार्य कर ड़ाले जिसमें सबसे ज्यादा हास्यप्रद कार्य पूर्वी बंगाल में “वन्दे मातरम्” के नारे पर रोक लगाना था। पंजाब, महाराष्ट्र और बंगाल को गरम दल का गढ़ समझा जाता था और पंजाब के उत्साह का तो कोई ठिकाना ही नहीं था।

काँग्रेस के कुछ लोगों को काँग्रेस का अन्त नजर आ रहा था। कुछ को लगता था कि काँग्रेस पर गरम दल के नेताओं का आधिपत्य हो जायेगा। 1906 के वर्ष के अन्त में कलकत्ता में काँग्रेस का अधिवेशन होना था, नरम दल के नेता डरे हुये थे। बंगाल के गरम दल के नेता तिलक को अपना अध्यक्ष चुनना चाहते थे परन्तु गोखले इसके पक्ष में नहीं थे। इस समस्या का हल करने के लिये इंग्लैण्ड में दादा भाई नैरोजी को अध्यक्ष पद को स्वीकार करने के लिये निमंत्रण भेजा गया साथ ही यह भी कहा कि यदि वे इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं करते तो वह दिन दूर नहीं जब काँग्रेस अपने अंत के सबसे करीब होगी। नौरोजी ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और 72 वर्ष की आयु में दादा भाई नौरोजी ने भारत की यात्रा की।

काँग्रेस के दोनों दलों के नेता नैरोजी का बहुत अधिक सम्मान करते थे। अतः दोनों ही दल को उनको अध्यक्ष चुने जाने पर कोई आपत्ति नहीं हुई। कलकत्ता के अधिवेशन में दादा भाई नैरोजी ने अपने सभापति के रुप में भाषण के दौरान काँग्रेस के मंच से पहली बार “स्वराज्य” के शब्द प्रयोग किया। जिससे राष्ट्रीयता के तीन मंच हो गये स्वराज्य, स्वदेशी तथा बहिष्कार।

रावल पिंडी का कृषक आन्दोलन, गिरफ्तारी और निष्कासन

ब्रिटिश सरकार की नयी भूमि संबंधी नीतियों के कारण किसानों में व्यापक असंतोष फैला हुआ था। सरकार ने अपने नये बन्दोबस्त के आधार पर अन्याय पूर्वक भूमिकर में वृद्धि कर दी जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित पंजाब का लायलपुर क्षेत्र हुआ। इस क्षेत्र में किसानों ने विद्रोह करना शुरु कर दिया जो 1907 के कृषक आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लाला लाजपत राय न तो इस आन्दोलन से दूर रहे न ही इसमें पूर्ण रुप से शामिल ही हुये। यद्यपि वे सक्रिय रुप से इस आन्दोलन में शामिल नहीं थे पर अपनो लेखों और पत्रों में इस आन्दोलन के बारे में लिखते थे और जमींदारों द्वारा कहे जाने पर उनकी ओर से वायसराय को पत्र लिख देते थे पर इन्होंने कानून के खिलाफ कोई सक्रिय कदम नहीं उठाया। इन्होंने अपनी आत्मकथा में खुद कहा है –

“उनके लिये मेरा कार्य लेखनी तक ही सीमित था। मैं उस पत्र में उस कानून के बारे में लिखता रहा, परन्तु मैंने उसके विरुद्ध कोई सक्रिय आन्दोलन प्रारंभ नहीं किया।”

इस दौरान लाला लाजपत राय ने कुछ स्थानों अमृतसर, अम्बाला, फिरोजपुर आदि स्थानों पर स्वदेशी और देश भक्ति के प्रचार के लिये भाषण दिये थे। इस आन्दोलन के लिये जमीदारों ने अपना मंच तैयार करके लाहौर में ‘भारत माता’ नाम से संस्था भी स्थापित कर दी जिसके प्रमुख सूफी संत अम्बा प्रसाद और अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) थे।

लाला लाजपत राय का भारत माता संस्था से कोई संबंध नहीं था पर जब भी इस संस्था के सदस्य इनके पास मदद के लिये आया करते तो ये उनकी मदद अवश्य कर दिया करते थे। 1907 में मार्च के अन्त में लायलपुर के जमींदारों ने लाजपत राय को निमंत्रण भेजा कि पशुओं की बिक्री के मेले के अवसर पर जरुर उपस्थित हो। राय 21 अप्रैल को जसवन्त राय, टेकचन्द बख्शी, रामभजदत्त चौधरी व रायबहादुर सुरदयाल के साथ वहाँ गये। उनके अपने साथियों के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुँचने पर बहुत भारी भीड़ द्वारा स्वागत किया गया।

लायलपुर व रावलपिंडी में यह आन्दोलन दिन प्रतिदिन उग्र हो रहा था। जगह जगह पर सभा तथा भाषणों का आयोजन करके आन्दोलन को और भी अधिक बढ़ाया जा रहा था। रावलपिण्डी के स्थानीय नेताओं के प्रमुख हंसराज साहनी व उनके भाई गुरुदास साहनी, दोनों ही प्रसिद्ध वकील भी इस आन्दोलन में बढ़- चढ़ कर भाग ले रहे थे। उनके द्वारा ऐसे आन्दोलनों में भाग लेने के कारण डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाकर उनके वकालत के लाईसेंस को रद्द करने के लिये कहा और गिरफ्तार कर लिया। इस घटना के बाद आन्दोलन ने और भी उग्र रुप ले लिया।

इस आन्दोलन के इतने उग्र रुप को देखकर सरकार ने उन पर केस न चलाने का फैसला किया और उन्हें रिहा कर दिया गया। उस दिन तो कैसे भी करके सभा और भाषण करने कि प्रक्रिया को रोक दिया गया पर अगले दिन दोपहर लाला लाजपत राय को समाचार मिला कि रात को गुरुदास राम गिरफ्तार हो गये हैं। ये उनकी जमानत कराने के लिये कचहरी के लिये तैयार हो गये। कचहरी पहुँचकर इन्हें समाचार मिला कि गुरुदास के अलावा लाला हंसराज, अमोलकराम भी गिरफ्तार कर लिये गये हैं और खजानसिंह और पं. जानकीनाथ के घरों की तलाशी ली जा रही है। उनकी जमानत के सभी पत्र बिना कोई ठोस कारण के अस्वीकार कर दिये गये है।

1907 का आन्दोलन बहुत उग्र रुप धारण कर चुका था। सभी अंग्रेजी अधिकारियों को इसके पीछे लाजपत राय के होने का शक था। इतनी सारी गिरफ्तारियों के बाद अब राय तक यह समाचार पहुँचने लगे थे कि किसी भी समय इन्हें गिरफ्तार करके निष्कासित किया जा सकता है। कुछ लोगों ने इन्हें लाहौर छोड़कर कुछ दिनों के लिये कहीं बाहर जाकर शान्त रहने की सलाह भी दी, पर लाला जी को लगता था कि उन्होंने ऐसा कोई कार्य ही नहीं किया जिससे कि उनकी गिरफ्तारी और निष्कासन किया जाये। लेकिन धीरे धीरे इन्हें भी लगने लगा कि कभी भी इनकी अप्रत्याशित गिरफ्तारी की जा सकती है अतः ये सतर्क हो गये और शान्ति पूर्वक अपने बचे हुये कार्यों के पूरा करने में लग गये।

इन्होंने कुछ पत्र लिखकर अपने संबंधियों और करीबियों के पास भेजे। 9 मई की सुबह से ही वे कुछ पत्र लिखने के लिये बैठ गये और अपने प्रातः का कार्य समाप्त करके जब वे कोर्ट जाने के लिये तैयार हुये तो नौकर द्वारा सूचना मिली कि अनारकली पुलिस के इंस्पेक्टर व सिटी पुलिस के इंस्पेक्टर मुंशी रहमतुल्ला उनसे मिलने आये हैं। ये दोनों सरकारी वर्दी में थे। इन दोनों ने सूचना दी कि कमिशनर और डिप्टी कमीशनर उनसे मिलना चाहते है। इस तरह की सूचना से लाला लाजपत राय को कुछ शक हुआ लेकिन फिर भी वे उनसे मिलने के लिये गये। यहां कमिशनर मि. यंगहसबैंड ने गवर्नर जनरल के आदेश के अनुसार निर्वासन की सजा सुना दी। 9 मई 1907 को लाला लाजपत राय को अजीत सिंह के साथ माण्डले जेल के लिये निर्वासित कर दिया गया।

लाला लाजपत राय को निर्वासित करने की वजह

1907 में लाला लाजपत राय का निर्वासन अंग्रेजों के बहुत बड़े डर को उजागर करता है। इस समय के पत्रों तथा साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि लाला जी को निर्वासित करने के पीछे कोई भी ठोस कारण नहीं था बस ब्रिटिश सरकार का काल्पनिक डर था, जिसका कोई वास्तविक आधार ही नहीं था। कुछ तो अंग्रेजों का डर और कुछ उन्हें गुप्तचरों द्वारा झूठी सूचना दी गयी कि उन्नाव, खेड़ी व अमृतसर में भारी विद्रोह होने वाला है साथ ही इसके लिये झूठे साक्ष्य भी प्रस्ततु कर दिये गये। ये जालसाजी इतनी चालाकी से की गयी थी कि कोई भी इसकी सत्यता पर शक नहीं कर सकता था। ऐसे समय में कृषकों के आन्दोलन ने इतना उग्र स्वरुप धारण कर लिया था कि अंग्रेजों को विश्वास हो गया था कि लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कोई बहुत बड़ा आन्दोलन होने वाला है इसलिये सरकार ने भावी अनिष्ट की आशंका से बचने के लिये उन्हें माण्डले के लिये निर्वासित कर दिया।

अंग्रेजों के डर का कारण 1857 की क्रान्ति थी। साल 1907 में इस क्रान्ति को पूरे 50 साल पूरे हो रहे थे तो अंग्रेजों को भय था कि शायद इसकी वर्षगांठ को एक बहुत बड़े पैमाने पर विद्रोह करके मनाया जायेगा। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने अंग्रेजी शासन की जड़े हिलाकर रख दी थी। उस समय तो कैसे भी करके अंग्रेजी सरकार भारतियों में आपस में फूट डालकर, धोखे और षड़यंत्रों के द्वारा क्रान्ति को दबाने में सफल हो गयी थी लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल गयी थी। भारतीय पहले से भी ज्यादा शिक्षित और अपने अधिकारों के लिये जागरुक हो गये थे। अंग्रेजों को डर था कि यदि अब आन्दोलन बढ़ता है तो उसे किसी भी प्रकार से नहीं दबाया जा सकेगा।

दूसरा कारण यह भी था कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिये ब्रिटिश सरकार ने पंजाब के शासकों का ही सहारा लिया था, लेकिन अब तो विद्रोह स्वंय पंजाब से ही शुरु हो रहा था, ऐसी स्थिति में सरकार का भयभीत होना स्वभाविक था। 1857 में हुये विद्रोह को किसी भी अँग्रेज अधिकारी के द्वारा भुलाया जाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान था। मई में होने वाली सभी सभाओं और भाषणों पर कड़ी नजर रखी जाने लगी। लाला लाजपत राय के बढ़ते प्रभुत्व ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। अंग्रेजों को अपने गुप्तचरों द्वारा यह सूचना मिली कि लाला लाजपत राय विद्रोह के लिये गुरु नानक की तरह हिन्दू तथा सिखों की ऐसी फौज को तैयार कर रहे है जो उनके बस केवल एक इशारे पर अपनी जान जोखिम में डालकर मरने और मारने के लिये तैयार हो। कृषक आन्दोलन ने इस शक को सच में परिवर्तित करने का कार्य किया। इस आन्दोलन में सक्रिय रुप से भाग न लेने के बावजूद भी इन्हें भारत से निर्वासित कर दिया गया।

मांडले में निर्वासित जीवन (9 मई 1907)

लाला लाजपत राय को निर्वासित करके मांडले (रंगून) भेजा गया। जब ये मांडले के लिये यात्रा कर रहे थे तो इन्हें इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ रखा गया कि इन्हें निर्वासन के दौरान कहाँ रखा जायेगा तथा यात्रा में इस प्रकार के प्रबंध किये गये जिससे किसी को भी यह शक न हो कि इन्हें निर्वासित करके भेजा जा रहा है।

मांडले पहुँचने के बाद वहां के सुपरिडेंट ने उनके साथ शुरु में तो ठीक व्यवहार किया लेकिन बाद में उसके व्यवहार में परिवर्तन आ गया। वो लाला लाजपत राय की अधिकतर माँगों को विलासिता की माँग कहकर मानने से इंकार कर देता था। लाला लाजपत राय को वहाँ अपनी पसंद का पंजाबी खाना नहीं मिलता था। समाचार पत्रों से वंचित रखा जाता था। किसी पत्र को भी उन तक पहुँचने से पहले रोक लिया जाता था। उनके द्वारा भेजे जाने वाले पत्रों की बहुत गहनता से जाँच पड़ताल करके भेजा जाता था। इस प्रकार उन्होंने निर्वासन का समय बहुत ही एकान्तवास में व्यतीत किया।

मांडले से मुक्ति (11 नवम्बर 1907)

मार्ले तथा मिंटो लाला लाजपत राय के निर्वासन को अनिश्चित काल तक स्थिर नहीं रख पाये। धारा सभा में इनके निर्वासन को लेकर डॉ. रदरफोर्ड तथा फ्रेडरिक मेकारनेस ने बहुत दृढ़ता से लड़ाई की जिसके परिणाम स्वरुप 11 नवम्बर 1907 को इनके निर्वासन को समाप्त कर दिया गया। जिस गाड़ी से ये भारत के लिये रवाना हुये उसी गाड़ी से अजीत सिंह को भी भारत लाया गया था।

निर्वासन के बाद स्वदेश वापसी और बाद का जीवन

लाला लाजपत राय को बिना कोई ठोस कारण पेश किये निर्वासित करने पर देश की जनता में अंग्रेजी शासन के लिये नफरत और भी बढ़ गयी। लोग इन्हें भगवान की तरह पूजने लगे। लाला जी की ख्याति दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी। वहीं दूसरी ओर उनके आर्यसमाजी मित्र उनके साथ नहीं रह सके। आर्य समाजी नेताओं ने समझा कि इन पर किया गया प्रहार संस्था पर किया गया प्रहार है और सभी ब्रिटिश सरकार के लिये अपनी-अपनी राजभक्ति को साबित करने में लग गये।

फिर भी स्वदेश आने पर उनका पहला भाषण 1908 में आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर हुआ। लाला लाजपत राय के भाषण को सुनने के लिये देश के कोने कोने से लोग आये। इस भाषण में लाला लाजपत राय ने अपने मित्रों के कार्यों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया। इन्होंने अपने मित्रों के कार्यों का समर्थन करते हुये कहा, “आर्य समाज जैसी धार्मिक संस्था के लिये यही उचित है कि वह राजनीति के क्षेत्र से दूर रहे, नहीं तो उनके आध्यात्मिक सुधार के कार्यों को हानि पहुँचेगी। यदि आर्य समाजी नेताओँ ने ये समझा कि मेरे संबंद्ध होने से उनके अनिष्ट होने कि शंका है तो मैं स्वंय उसकी कार्यकारिणी तथा प्रबंधक समिति के सभी पदों को त्यागने के लिये तत्पर हूँ। लेकिन अपने धर्म अथवा मातृभूमि की उन्नति के लिये सर्वस्व त्याग के लिये सदैव तैयार रहूँगा।”

काँग्रेस में आन्तरिक फूट

लाला लाजपत राय के निर्वासन के बाद आने पर काँग्रेस के गरम दल के नेता उन्हें प्रधान बनाना चाहते थे इसलिये तिलक ने उम्मीदवारी के लिये राय का नाम दे दिया था। परन्तु नरम दल के नेता इस निर्णय के खिलाफ थे। लाला लाजपत राय को भी इस बात का पूरा अंदाजा हो गया था कि अब काँग्रेस में इस फूट की खायी को नहीं भरा जा सकता और भावी सम्भावनाओं को देखते हुये उन्होंने उम्मीदवारी से अपना नाम वापस ले लिया। उस समय की परिस्थितियाँ ऐसी हो गयी थी कि लाला लाजपत राय, तिलक व गोखले की कोशिशों के बाद भी काँग्रेस के दोनों दलों में आपसी मतभेद बने जिससे अँग्रेजी सरकार अपनी दमन कारी नीतियों से राष्ट्रवादी आन्दोलन को कुचलने में सफल हो गयी।

भारत का भ्रमण

विकट राजनैतिक परिस्थतियों के उपस्थित हो जाने पर लाला लाजपत राय बहुत व्याकुल रहने लगे। उन्हें राजनीति में मानसिक शान्ति नहीं मिलती थी। वहीं देश में अकाल पड़ने के कारण पीड़ितों की मदद करने के लिये उन्होंने देश में भ्रमण करने का निश्चय किया। अपनी इस यात्रा के क्रम में वे पहले बम्बई, कलकत्ता, कानपुर और फिर दिल्ली गये। देशवासियों के मन में इनके लिये श्रद्धा बढ़ती ही जा रही थी अतः ये जिस भी स्थान पर पहुँचते इनके आने की सूचना मिलते ही इनके स्वागत के लिये बहुत बड़ी भीड़ पहले से ही स्टेशन पर उपस्थित हो जाती।

जिस समय ये बम्बई पहुँचे भारी जनसमूह ने इनका उत्साह पूर्वक स्वागत किया। संयोगवश उस समय बम्बई में आर्य समाज का वार्षिकोत्सव था। उस वार्षिकोत्सव में लाला लाजपत राय को निमंत्रित किया गया। इन्होंने इस अवसर पर दो भाषण दिये। इनका पहला भाषण समाज में धर्म तथा शिक्षा के महत्व से संबंधित था और दूसरा भाषण स्वदेशी पर था। इस कार्यक्रम में भी समाज के लिये धन दान करने की अपील का कार्य इनके द्वारा सम्पादित किया गया। आर्य समाज के लिये धन दान करने के साथ ही इन्होंने अकाल पीड़ितों की मदद के लिये भी अपील की।

अपनी यात्रा के अगले क्रम में वे कलकत्ता गये। कलकत्ता में भी इनका भव्य स्वागत हुआ और इनके सम्मान में सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में ये मुख्य अतिथि के रुप में उपस्थित हुये। ये सभा को सम्बोधित करते हुये आर्य समाज व जनता में कार्य करने की आवश्यकता पर बोले। कलकत्ता के बाद ये कानपुर पहुँचे। यहाँ इन्होंने स्वदेशी का प्रचार किया और अकाल पीड़ित क्षेत्रों के लिये धन संग्रह कर मदद करने की अपील की।

अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में ये दिल्ली पहुँचे और यहाँ भी अन्य सभी स्थानों की तरह भव्य स्वागत सभा का आयोजन हुआ जिसमें इन्होंने दिल्ली के लोगों को सम्बोधित करते हुये अकाल से दीनहीन हुये पड़ोसी क्षेत्र के भाईयों की मदद के लिये गुहार की। इस यात्रा को समाप्त करते हुये वापस लाहौर आ गये और यहाँ आकर लाला लाजपत राय ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर लोगों को अकाल पीड़ित लोगों की करुण दशा का वर्णन किया। इन्होंने अपने लेखों के माध्यम से लोगों को अधिक से अधिक सहायता करने के लिये प्रेरित किया और कई स्थानों पर सहायता की धनराशि से अस्थाई अनाथ आश्रमों को भी स्थापित किया।

यूरोप दूसरी यात्रा (1908-09)

1905 में जब ये पहली बार विदेश यात्रा पर गये थे तब बहुत ज्यादा उत्साहित थे। इनके मन में नये नये विचार आ रहे थे और वे किसी भी तरह उस यात्रा को अपने कार्यों के द्वारा अविस्मरणीय बनाना चाहते थे। लेकिन इस समय परिस्थितियाँ बिल्कुल भिन्न थी। बाल गंगाधर तिलक को गिरफ्तार करके मांडले जेल भेज दिया गया था। अरविन्द घोष को भी अपने कुछ अपत्तिजनक लेखों के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। सूरत के काँग्रेस अधिवेशन के बाद विपिन चन्द्र पाल ने भी यूरोप जाने का निश्चय कर लिया था जिससे कि वे यूरोप और अमेरिका के अधिकारी नेताओं को बता सके कि भारत में क्रान्ति का होना अनिवार्य है। इस तरह से राष्ट्रवादी दल बिखर गया और अँग्रेज सरकार स्वराज्य के आन्दोलन को कुछ समय के लिये दबाने में सफल हो गयी।

लाला लाजपत राय के मस्तिष्क पर देश की राजनीति का एक दुखद चित्र अंकित हो गया। यूरोप जाते समय उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वे डर कर भाग रहे है। लेकिन इंग्लैण्ड जाकर हालातों को सुधारने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं था अतः उन्हें बड़े ही भारी मन से जाना पड़ा। ये इंग्लैण्ड भारतीय प्रतिनिधि आन्दोलन के प्रतिनिधि के रुप में गये थे, इस कारण वहाँ पहुँचने के तुरंत बाद भारतीयों के हित में कार्य करने में लग गये।

इंग्लैण्ड में वे भ्रमण करते, सभाओं का आयोजन करने के साथ ही अपने भाषणों और व्याख्यानों के द्वारा भारतीय समस्याओं और वर्तमान स्थितियों से परिचित कराते थे। इनकी क्लेफम तथा वेस्टबोर्न में आयोजित सभाओं के प्रधान क्रमशः रेटक्लिफ व इंग्लैण्ड पार्लियामेंट के सदस्य जी. पी. गूच थे। सभा के बाद इनसे उपस्थित लोगों व संवाद दाताओं द्वारा प्रश्न किये जाते जिसका ये संतोष जनक जबाब देते थे। ऐसी ही एक सभा के दौरान इनसे किसी ने पूछा कि आपकों किन आधारों पर लगता है कि आप वास्तव में भारत की 5% जनसंख्या के प्रतिनिधि है? लाला लाजपत राय ने इस सवाल का मुँह तोड़ जबाब दिया। उन्होंने कहा कि इसका जबाब तो स्वंय भारत सरकार मेरे निर्वासन द्वारा दे चुकी है। इन्होंने विपिन चन्द्र पाल के साथ लंदन में 16 अक्टूबर 1908 को राष्ट्रीय दिवस मनाया। इन दोनों ने इस कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता के रुप में भाग लिया था। इस दौरान इनकी भेंट कोपाटकिन से भी हुई। 1909 में ये वापस लाहौर के लिये आ गये।

1909–1913 तक की घटनाएँ

भारत वापस लौटने के बाद भी इन्होंने काँग्रेस का वहीं पुराना रुप देखा जिस पर केवल मारेडियों(इसका क्या मतलब है) का प्रभाव था और अभी भी गरम व नरम दल के बीच विचारों की खींचातान चल रही थी। भारत सरकार को प्रसन्न करने की उदारवादी नीतियों से ये ऊब चुके थे अतः पंजाब आकर फिर से वकालत शुरु कर दी साथ ही आर्य समाज के कार्यों को भी करते रहते। 21-22 अक्टूबर में पंजाब में हिन्दू सभा की स्थापना हुयी। इस सभा का चौथा सम्मेलन 1912 में हुआ जिसमें 5,500 की धनराशि इकट्ठा की जिसको आर्य समाज के 1913 के सम्मेलन में शिक्षा व दलितों के उद्धार के लिये दान करने की घोषणा की गयी।

जिसमें से 200 एकड़ भूमि दलितों के लिये आदर्श बस्ती बनाने के लिये खरीदी और शेष धन को सुधार कार्यों, पुस्तकालयों की स्थापना करने और शिक्षा पर व्यय कर दिया। 1913 में ही इन्होंने अपने पैतृक गाँव जगराव में अपने पिता जी के नाम से विद्यालय (राधाकृष्ण हाई स्कूल) की नींव डाली। इसी वर्ष लाला लाजपत राय म्युनसिपल चुनाव के लिये खड़े हुये और विजयी भी रहें। इस दौरान इन्होंने इतने प्रशासनिक कार्य किये की इनके आलोचक भी इनकी प्रशंसा करने लग गये थे।

काँग्रेस के प्रतिनिधि के रुप में तीसरी बार विदेश यात्रा

13 दिसम्बर 1913 को कराची के अधिवेशन में इंग्लैण्ड के लिये काँग्रेस का शिष्टमंडल (डेप्यूटेशन) भेजने का प्रस्ताव पास हुआ साथ ही यह निर्णय लिया गया कि इस बार सभी प्रान्तों के सदस्य अपने-अपने प्रतिनिधियों को स्वंय चुनकर भेजेगा। इस क्रम में पंजाब से लाला लाजपत राय, बंगाल से भूपेंद्र नाथ बसु, बम्बई से ए. एम. जिन्ना व बिहार से कृष्ण सहाय का नाम प्रस्तावित हुआ। किन्हीं कारणों से ये अपने साथियों के साथ यात्रा पर रवाना नहीं हो सके। ये अपने साथियों को 17 मई 1914 को जा कर मिले। भारत से इस शिष्टमंडल को भेजने का उद्देश्य लार्ड कीव द्वारा भारतीय शासन के लिये बनाये गये अधिनियमों और सुधारों की समीक्षा करके भारतीय काँग्रेस को रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

लाला लाज पत राय के पहुँचने से पहले ही भूपेंद्र नाथ बसु कीव से मुलाकात कर चुके थे। कीव द्वारा बनायी गयी रिपोर्ट से सभी असहमत थे पर सभा का निर्णय था कि कैसे भी हो अंग्रेजी सरकार के साथ विद्रोह न करके इस प्रस्ताव में अपने संशोधन कराकर अपना कार्य कराना है अतः शिष्टमंडल (डेप्यूटेशन) ने अपने संशोधनों के साथ अपनी रिपोर्ट भारतीय सरकार के लिये भेज दी।

लाला लाजपत राय काँग्रेस के डेप्यूटेशन के साथ जाने के लिये हमेशा उत्साहित रहते थे क्योंकि इन्हें अपने लिये नये अनुभवों और शिक्षा का प्रसार करने का अवसर मिलता था साथ ही नये लोगों को जानने का अवसर भी मिलता था। इस कारण इनका परिचय काफी लोगों से हुआ जिनमें से कुछ तो बहुत अच्छे मित्र भी बन गये। इंग्लैण्ड में इनकी मित्र मंडली में केयर हार्डी, मैकरनेस, डॉ. रदरफोर्ड, वैव दंपत्ति (सिडनी वैव), सर विलियम वैडरबर्न प्रमुख थे।

लाला लाजपत राय केवल 6 महीने के लिये इंग्लैण्ड गये थे लेकिन 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरु होने के कारण इन्हें 5 वर्षो तक युद्ध निर्वासित का जीवन जीना पड़ा। युद्ध के दौरान इन्होंने निर्वासित तथा राजदूत के रुप में जीवन व्यतीत किया। इन्होंने इंग्लैण्ड में रहते हुये भारतीय छात्रों की समस्याओं को देखा जिस पर इन्होंने न्यू स्टेट्समैन के सम्पादक टी. वी. आर्नल्ड से भेंट करके “भारतीय छात्रों की समस्याओं” के शीर्षक से लेख प्रकाशित कराया। बाद में एक लम्बे समय तक अमेरिका में भारतीय राजदूत के रुप में कार्य किया। 1917 में अमेरिका में इण्डियन होम रुल लीग की स्थापना भी की।

भारत आगमन और असहयोग आन्दोलन

प्रथम युद्ध की समाप्ति पर लाला लाजपत राय की स्वदेश वापसी हुई। भारत आने के बाद इन्हें काँग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। भारतीय सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान काँग्रेस से युद्ध में सहायता की माँग की थी साथ ही ये भी वादा किया था कि युद्ध समाप्ति पर भारतीय नागरिकों को अपनी सरकार निर्माण करने का अधिकार प्रदान कर देगी। लेकिन युद्ध की समाप्ति पर वह अपने वादे से मुकर गयी जिससे काँग्रेस में ब्रिटिश सरकार के लिये पूर्ण रुप से असंतोष व्याप्त हो गया।

इस दौरान खिलाफत आन्दोलन और जलियाँवाला बाग हत्या कांड की दिल दहला देने वाली घटना के कारण असहयोग आन्दोलन किया गया जिसमें पंजाब से लाला लाजपत राय ने नेतृत्व की कमान संभाली और आन्दोलन का नेतृत्व किया। इनके नेतृत्व में पंजाब में इस आन्दोलन ने बहुत बड़ा रुप ले लिया जिसके कारण इन्हें शेर-ए-पंजाब कहा जाने लगा। इनके नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन (असहयोग आन्दोलन) के सम्बंध में काँग्रेस की पंजाब में बैठक हुई जिसके कारण इन्हें अन्य सदस्यों सहित 2 दिसम्बर को सार्वजनिक सभा करने के झूठे केश में गिरफ्तार कर लिया।

जिसके बाद 7 जनवरी को इनके खिलाफ केस न्यायालय में पेश किया तो इन्होंने न्यायालय की प्रक्रिया में भाग लेने से यह कहते हुये मना कर दिया कि इन्हें ब्रिटेन की न्याय प्रणाली में कोई विश्वास नहीं है अतः इनकी तरफ से न तो कोई गवाही हुई और न ही किसी वकील के द्वारा जिरह पेश की गयी। इस गिरफ्तारी के बाद लाला लाजपत राय को दो साल की सजा सुनायी गयी। लेकिन जेल की परिस्थितियों में लाला जी का स्वास्थ्य खराब हो गया। लगभग 20 महीने की सजा काटने के बाद इन्हें खराब स्वास्थ्य के कारण आजाद कर दिया गया।

जीवन का अन्तिम बड़ा आन्दोलन साइमन कमीशन का विरोध

अस्वस्थ्य होने के कारण लाला लाजबत राय को जेल प्रशासन ने रिहा कर दिया। जिसके बाद ये जलवायु परिवर्तन के सुझाव पर सिलोन चले गये और वहीं रहकर अपना उपचार करवाना शुरु कर दिया। इनका उपचार काफी लम्बा चला लेकिन ये अपने समाज सुधार के कार्यों में पहले की ही तरह लगे रहे। इस दौरान इन्होंने 1924 में अछूतों के उद्धार के लिये अछूतोद्धार आन्दोलन चलाया, जिससे कि समाज में व्याप्त ऊँच-नीच के भेद को कम किया जा सके। इसके अलावा ये अन्य समाज सुधारक कार्यों में स्वंय को व्यस्त ही रखते थे, जिसमें 1927 में हॉस्पिटल के निर्माण के लिये ट्रस्ट की स्थापना करना भी शामिल है।

लाला लाजपत राय के जीवन का अन्तिम आन्दोलन साइमन कमीशन का विरोध था। साइमन कमीशन ब्रिटिश सरकार के द्वारा औपनिवेशिक राज्यों में सुधार करने के लिये गठित की गयी सात सदस्यीय कमेटी थी। इस कमेटी में किसी भी भारतीय सदस्य को शामिल नहीं किया गया था जिसके कारण इस कमीशन का भारत में हर जगह विरोध किया गया। लगभग पूरे भारत के लोगों द्वारा जुलूस और हाथों पर काली पट्टी बाँधकर इसका विरोध किया गया। 30 अगस्त को जब ये कमीशन पंजाब पहुँचा तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में नवयुवकों ने विरोध रैली का आयोजन किया। ऐसा लगता था कि पूरा पंजाब मौन रुप में इसका विरोध कर रहा था।

पुलिस अपने बहुत प्रयासों के बाद भी वे भीड़ को हटाने में असफल हुई जिसके कारण पुलिस ने निर्ममता पूर्वक लाठी चार्ज करने का आदेश दे दिया। पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लाला लाजपत राय को निशाना बनाते हुये उन पर लाठियों से बार-बार प्रहार किया किन्तु वे अपनी जगह से हिले तक नही। लाठी चार्ज की शाम को सभा का आयोजन किया गया जिसमें लाला लाजपत राय ने बहुत ही उत्तेजक भाषण दिया। उन्होंने कहा, हमारे ऊपर किया गया एक-एक प्रहार ब्रिटिश साम्राज्य के लिये विनाश की कील साबित होगा।

इस घटना के बाद लाला जी शारीरिक व मानसिक रुप से टूट गये और लगातार अस्वस्थ्य रहने लगे। लगातार उपाचार के बाद भी इनके स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट होती रही। 17 नवम्बर 1928 को स्वराज्य का यह उपासक सदैव के लिये चिर निंद्रा में विलीन गये।

लाला लाजपत द्वारा लिखी गयी पुस्तक

लाला लाजपत राय महान विचारक होने के साथ साथ एक महान लेखक भी थे। इन्होंने अपने कार्यों व विचारों के साथ ही अपने लेखन कार्यों से भी लोगों का मार्गदर्शन किया। इनकी कुछ पुस्तक निम्नलिखित हैः-

  • मेजिनी का चरित्र चित्रण (1896)
  • गेरिबाल्डी का चरित्र चित्रण (1896)
  • शिवाजी का चरित्र चित्रण (1896)
  • दयानन्द सरस्वती (1898)
  • युगपुरुष भगवान श्रीकृष्ण (1898)
  • मेरी निर्वासन कथा
  • रोमांचक ब्रह्मा
  • भगवद् गीता का संदेश (1908)
  • संयुक्त राज्य अमेरिका पर एक हिन्दू के विचार
  • प्राचीन भारत का इतिहास
  • महाराज अशोक व छत्रपति शिवाजी के संशोधित संस्करण
  • एक वैधानिक व्यक्ति के उदगार
  • भारतीय राजनीति का क,ख,ग (अपने पुत्र के नाम से प्रकाशन कराया)
  • अनहैप्पी इण्डिया (1928)
  • आर्य समाज (1915)
  • यंग इण्डिया, एन इंटरप्रिटेशन एंड ए हिस्टरी ऑफ द नेशनलिस्ट मुवमेंट फॉर्म विद इन (1916)
  • पॉलिटिकल फ्यूचर ऑफ इण्डिया (1919)
  • ए हिस्टरी ऑफ द आर्य समाजः एन एकाउंट ऑफ इट्स औरिजिन, डॉक्टराईन एंड एक्टिविटिज विद ए बायोग्राफिकल स्केच ऑफ द फाउंडर (1915)।

लाला लाजपत राय के विचार

  • “मनुष्य अपने गुणों से आगे बढ़ता है न कि दूसरों कि कृपा से”।
  • “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में कील साबित होगी”।
  • “साइमन वापस जाओ”।
  • “वह सरकार जो अपनी निर्दोष जनता पर हमला करती है वह सभ्य सरकार होने का दावा नहीं कर सकती। यह बात अपने दिमाग में बैठा लो कि, ऐसी सरकार ज्यादा लम्बे समय तक नहीं जी सकती”।
  • “गायों व अन्य जानवरों की क्रूर हत्या शुरु होने से, मैं भावी पीढ़ी के लिये चिन्तित हूँ”।
  • “यदि मैं भारतीय पत्रिकाओं को प्रभावित करने की शक्ति रखता तो मैं पहले पेज पर निम्नलिखित शीर्षकों को बड़े शब्दों में छापता शिशुओं के लिये दूध, वयस्कों के लिये भोजन और सभी के लिये शिक्षा”।
  • “मेरा विश्वास है कि बहुत से मुद्दों पर मेरी खामोशी लम्बे समय में फायदेमंद होगी”।

लाला लाजपत राय का जीवन चक्र (टाइम-लाइन)

  • 1865– 28 जनवरी को धुड़ीके में जन्म।
  • 1877-78 – मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की।
  • 1880– कलकत्ता विश्वविद्यालय व पंजाब विद्यालय से डिप्लोमा की परीक्षा उत्तीर्ण की।
  • 1881– लाहौर गवर्नमेंट स्कूल में प्रवेश लिया।
  • 1882-83– एफ. ए. व मुख्तारी की परीक्षा उत्तीर्ण की, हिन्दी आन्दोलन में भाग लेने के द्वारा सार्वजनिक जीवन में प्रवेश, अग्निहोत्री के प्रभाव में आकर ब्रह्म समाज में प्रवेश कुछ समय बाद आर्य समाज में प्रवेश।
  • 1886– वकालत की शुरुआत, 1 जून को अपने मित्र गुरुदत्त और हंसराज के साथ मिलकर डी. ए. वी. की स्थापना।
  • 1888– हिसार में काँग्रेस को निमंत्रण, 27 अक्टूबर, 15 नवम्बर, 22 नवम्बर, 20 दिसम्बर को सर सैयद अहमद खाँ के नाम खुले पत्र लिखे।
  • 1893– आर्य समाज दो भागों में बँटा, आर्य समाज (अनारकली बाजार) के अध्यक्ष (सचिव) बने, काँग्रेस के अधिवेशन में गोखले व तिलक से मुलाकात।
  • 1894– पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना।
  • 1897– भारत में भीषण अकाल के समय में भारतीयों की सहायता करने के लिये स्वंय सेवी संगठन की स्थापना।
  • 1898– फेंफड़ों में भंयकर बीमारी।
  • 1904– ‘द पंजाबी’ अंग्रेजी पत्र का प्रकाशन।
  • 1905– पहली बार काँग्रेस के शिष्टमंडल के साथ विदेश (इंग्लैण्ड) यात्रा की।
  • 1907– निर्वासन के बाद मांडले जेल में जीवन।
  • 1908– निर्वासन के बाद भारत लौटने पर आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर पहला सार्वजनिक भाषण।
  • 1908-09– दूसरी यूरोप यात्रा।
  • 1912-13– दलितों को समानता का अधिकार देने और उनके जीवन स्तर व शिक्षा में सुधार करने के लिये 5500 रुपये दान द्वारा एकत्र किये।
  • 1914–17 मई को तीसरी यूरोप यात्रा, प्रथम विश्व युद्ध के शुरु होने के कारण 5 साल तक विदेश (अमेंरिका में) में रहे।
  • 1917– अमेरिका में इण्डियन होमरुल लीग की स्थापना।
  • 1920– स्वदेश वापसी के बाद काँग्रेस के अध्यक्ष बने।
  • 1920– गाँधी के असहयोग आन्दोलन का पंजाब में नेतृत्व का कार्य शुरु किया, जिसके कारण गिरफ्तार किये गये और 20 महीने की सजा सुनायी गयी।
  • 1923– लाला लाजपत राय के पिता की मृत्यु।
  • 1924– अछूतोद्धार आन्दोलन कार्यक्रम की शुरुआत।
  • 1925– साप्ताहिक पत्रिका “पीपुल” का सम्पादन, हिन्दू महासभा (पंजाब) के अध्यक्ष बने, “वन्दे मातरम्” उर्दू दैनिक संपादक पत्र का प्रकाशन।
  • 1926– स्वराज्य दल में शामिल हुये, भारतीय श्रमिकों की तरफ से प्रतिनिधि बनकर शामिल हुये।।
  • 1927– हॉस्पिटल खोलने के लिये ट्रस्ट का निर्माण किया।
  • 1928– साइमन कमीशन के विरोध में 30 अक्टूबर को विरोध रैली का नेतृत्व, पुलिस द्वारा इन पर लाठी चार्ज।
  • 1928– 17 नवम्बर को मानसिक और शारीरिक अस्वस्थ्यता के कारण सदैव के लिये गहरी नींद में सो गये।
अर्चना सिंह

कई लोगो की प्रेरणा की स्रोत, अर्चना सिंह एक कुशल उद्यमी है। अर्चना सिंह 'व्हाइट प्लैनेट टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड' आई. टी. कंपनी की डायरेक्टर है। एक सफल उद्ममी होने के साथ-साथ एक कुशल लेखक भी है, व इस क्षेत्र में कई वर्षो का अनुभव है। वे 'हिन्दी की दुनिया' और अन्य कई वेबसाइटों पर नियमित लिखती हैं। अपने प्रत्येक क्षण को सृजनात्मकता में लगाती है। इन्हें खाली बैठना पसंद नहीं। इनका कठोर परिश्रम एवं कार्य के प्रति लगन ही इनकी सफलता की कुंजी है।

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द्वारा प्रकाशित
अर्चना सिंह