सुखदेव थापर (15 मई 1907 – 23 मार्च 1931)
भारत को आजद कराने के लिये अनेकों भारतीय देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसे ही देशभक्त शहीदों में से एक थे, सुखदेव थापर, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत को अंग्रेजों की बेंड़ियों से मुक्त कराने के लिये समर्पित कर दिया। सुखदेव महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के बचपन के मित्र थे। दोनों साथ बड़े हुये, साथ में पढ़े और अपने देश को आजाद कराने की जंग में एक साथ भारत माँ के लिये शहीद हो गये।
सुखदेव थापर से संबंधित मुख्य तथ्यः
पूरा नाम – सुखदेव थापर
जन्म – 15 मई 1907
जन्म स्थान – चौरा बाजार के नौघर क्षेत्र में, लुधियाना (पंजाब)
माता-पिता – रल्ली देवी (माता), रामलाल थापर (पिता)
अन्य संबंधी – मथुरादास थापर (भाई), भारत भूषण थापर (भतीजा)
शिक्षा – नेशनल कॉलेज, लाहौर
संगठन – भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा के साथ 1926 में नौ जवान भारत सभा का गठन, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (1928) के कार्यकर्ता।
क्रान्तिकारी गतिविधियाँ – 1928 में लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला लेने के लिये भगत सिंह, आजाद और राजगुरु के साथ जे. पी. साण्डर्स की गोली मारकर हत्या, 1929 में अपने साथियों के साथ कैदी भूख हड़ताल।
मुख्य लक्ष्य – किसी भी तरह भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराना।
मृत्यु (शहादत) – 23 मार्च 1931, शाम 7:33 बजे।
मृत्यु का कारण – फाँसी।
सुखदेव की जीवनी (जीवन परिचय)
जन्म और बाल्यकालः
महान क्रान्तिकारी सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब राज्य के लुधियाना शहर के चौरा बाजार क्षेत्र के नौघर मुहल्ले में हुआ था। सुखदेव के जन्म स्थान के विषय में दो राय हैः कुछ लोगों का मानना हो कि इनका जन्म लुधियाना शहर के नौघर क्षेत्र में हुआ था और कुछ लोग मानते है कि इनका जन्म लालयपुर में हुआ था। किन्तु वास्तविकता में इनका जन्म लुधियाना में हुआ था। इनके पिता का नाम रामलाल तथा माता का नाम रल्ली देवी था। जब इनकी माता अपनी अगली सन्तान को जन्म देने वाली थी, उससे तीन महीने पहले ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी। ऐसी स्थति में अपने छोटे भाई की पत्नी की सहायता करने के उद्देश्य से अचिन्तराम थापर (सुखदेव के ताऊ जी) इनके परिवार को अपने साथ लायलपुर ले आये। इस प्रकार सुखदेव का बचपन लायलपुर में बीता।
सुखदेव का पालन पोषण इनके ताया जी अचिन्तराम थापर ने किया। इनकी तायी जी भी इनसे बहुत प्रेम करती थी। वे दोनों इन्हें अपने पुत्र की तरह प्रेम करते थे और सुखदेव भी इनका बहुत सम्मान करते थे और इनकी हर बात मानते थे।
प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षाः
सुखदेव का प्रारम्भिक जीवन लायलपुर में बीता और यही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। बाद में आगे की पढ़ाई के लिये इन्होंने नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। नेशनल कॉलेज की स्थापना पंजाब क्षेत्र के काग्रेंस के नेताओं ने की थी, जिसमें लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इस कॉलेज में अधिकतर उन विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था जिन्होंने असहयोग आन्दोंलन के दौरान अपने स्कूलों को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में भाग लिया था। इस कॉलेज में ऐसे अध्यापक नियुक्त किये गये जो राष्ट्रीय चेतना से पूर्ण इन युवाओं को देश का नेतृत्व करने के लिये तैयार कर सके। भाई परमानंद को इस कॉलेज का प्राधानाचार्य नियुक्त किया गया। ऐसे राजनैतिक और क्रान्तिकारी वातावरण में राष्ट्रीय भावना से प्रेरित सुखदेव के मन में क्रान्ति की चिंगारी और भी ज्यादा प्रबल हो गयी।
लाहौर कॉलेज में ही सुखदेव की मित्रता भगत सिंह, यशपाल और जयदेव गुप्ता से हुई। एक जैसे विचार होने के कारण ये बहुत घनिष्ठ मित्र बन गये। हर एक गतिविधि में ये एक दूसरे को पूर्ण सहयोग और परामर्श देते थे। ये अपने मित्रों के साथ मिलकर अपने शिक्षकों के साथ शरारत भी करते थे। जब इनका पढ़ने का मन नहीं होता तो अपने दोस्तों के साथ मिलकर किसी भी तरह से प्रोफेसर को क्लास न लेने के विवश कर देते थे।
“एक दिन प्राफेसर सौंधी (इतिहास के प्रवक्ता) अशोक के शासन काल पर लेक्चर दे रहे थे। भगत सिंह, सुखदेव और यशपाल का मन पढ़ाई में नहीं था, लेकिन प्रोफेसर के क्लास में रहते हुये वे बाहर भी नहीं जा सकते थे। अचानक भगत सिंह ने खड़े होकर पूछाः-“श्रीमान सुना है कि अंग्रेज भारत में भिक्षुक बनकर आये थे और बाद मे यहाँ के शासक बन गये क्या यह सत्य है?”
उस समय सौंधी सर अशोक की न्यायप्रियता के बारे में बता रहे थे। भगत के इस तरह के सवाल को सुनकर उन्हें गुस्सा आ गया और भगत सिंह पर डाँट लगाते हुये कहाः-“तुम से कितनी बार कहा है कि तुम मेरे लिंक ऑफ थाट को डिस्टर्ब न किया करो, लेकिन तुम सुनते नहीं हो…….।”
इससे पहले कि प्रोफेसर की बात पूरी हो सुखदेव ने उठकर कहाः-“सर! यह भगत सिंह बिल्कुल नालायक है। कहाँ आप शाहजहां के शासनकाल के बारे में पढ़ा रहे थे और कहाँ यह अंग्रेजों की बातें ले बैठा ….।”
इतना सुनते ही प्रोफेसर साहब के क्रोध का बांध टूट गया और वे गुस्से में बोले- “व्हाट डू यू मीन बाई शाहजहां? मैंने कब शाहजहां का नाम लिया?”
इससे पहले प्रोफेसर साहब कुछ और कहे तभी यशपाल ने उठकर कहा- “सर, मैं इन दोनों से से कह रहा था, मोहम्मद तुगलक के पागलपन के बारे में बता रहे थे, लेकिन इन दोनों को मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ।”
प्रोफेसर साहब झल्लाकर बोले – “तुम सब एकदम नालायक हो। मैं तुम लोगों को नहीं पढ़ा सकता।” इतना कहकर वह क्लास से बाहर चले जाते और ये तीनों खुशी से क्लास छोड़ कर अपने अन्य कार्यों में सलंग्न हो जाते।”
सुखदेव का स्वभावः
सुखदेव बचपन से ही जिद्दी व सनकी स्वभाव के थे। उन्हें पढ़ने लिखने में कोई विशेष रुचि नहीं थी। अगर कुछ पढ़ लिया तो ठीक ना पढ़ा तो ठीक लेकिन वह बहुत गहरा सोचते थे। ये बहुत देर तक किसी एकांत जगह पर बैठ जाते और न जाने किस चीज के बारे में सोचते रहते। ये अक्सर चुप रहते और अपने आप में खोये रहते। इनका स्वभाव ऐसा था कि ये दूसरे से सीखने में कम विश्वास करते थे, लेकिन इनके स्वभाव में सनकीपन कुछ ज्यादा ही था।
इन्हें जब किसी काम को करने की सनक होती तो यह उसे हर हाल में कर गुजरते थे। कुछ दिनों के लिये पहलवानी करने का शौक इनके इसी सनकीपन को बयान करता है। अपने इसी शौक को पूरा करने के लिये पढ़ने लिखने का ख्याल छोड़कर पहलवानी करने लगे। प्रतिदिन सुबह उठकर कसरत करते और अपने शरीर को मजबूत करने के लिये मालिश भी करते थे।
यह सुखदेव के स्वभाव में था कि जब भी कोई इन्हें सलाह देता या ये स्वंय किसी नये प्रयोग या सलाह के बारे में पढ़ते तो पहले उसे स्वंय ही जाँचते कि यह कहाँ तक सही है। उनके जीवन की एक घटना इस तथ्य को प्रमाणित भी करती है, एक बार इन्होंने किसी किताब से पढ़ा कि यदि झगड़े या मारपीट के समय अपने से बहुत अधिक बलवान किसी व्यक्ति से मुकाबला हो तो अपनी रक्षा के साथ ही प्रतिद्वंदी को हराने के लिये उसकी नाक पर जोर से घूसा मार देना चाहिये। कोई भी व्यक्ति को इस उपाय को पढ़कर विश्वास कर लेता लेकिन सुखदेव ने इसकी प्रमाणिकता को परखना आवश्यक समझा।
एक दिन सुखदेव का उपवास था और ये किसी कार्य से कहीं जा रहे थे। अचानक इन्हें किताब में पढ़ी हुई बात याद आ गयी और रास्ते में ही किसी बलवान व्यक्ति को ढूंढ़ने लगे। इन्हें ऐसा एक व्यक्ति दिखायी दिया। सुखदेव ने उस व्यक्ति के समीप पहुँचकर उस की बेखबरी में अपनी पूरी जान से उसकी नाक पर घूंसा मार दिया और चोट का प्रभाव देखने के लिये उस व्यक्ति के पास में खड़े हो गये।
इस अप्रत्याशित हमले से चोट खाने वाला व्यक्ति अपने चहरें को दोनों हाथों से पकड़कर सड़क पर बहुत देर तक बैठा रहा। सुखदेव भी बड़े ध्यान से उसकी ओर देख रहे थे। उस व्यक्ति को जब होश आया तो उसने अपने ऊपर आघात करने वाले व्यक्ति को अपनी अवस्था का अवलोकन करते हुये देखा। उस स्थिति में चोट खाने वाले व्यक्ति ने वहीं किया जो कोई भी सामान्य व्यक्ति करता है, वह उठकर सुखदेव को पकड़ने के लिये उनकी ओर बढ़ा।
ये अपने बचाव के लिये भागे परन्तु ये सुबह से उपवास के कारण भूखे थे और चोट खाने वाले व्यक्ति से बहुत कमजोर, उसने सुखदेव को पकड़ लिया और इन्हें मारने लगा। सुखदेव असहाय थे, तो मार खाने बैठ गये। रास्ते पर आते जाते लोगों ने बीच बचाव करके इन्हें छुड़ाया। इस घटना के बाद इन्हें नाक पर घूसा मारने के परिणाम का उचित अंदाजा हो गया।
क्रान्तिकारी जीवन का प्रारम्भः
सुखदेव शुरु से ही देश के लिये कुछ करना चाहते थे। अपने देश प्रेम की भावना के कारण ही इन्होंने नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया था। इस कॉलेज में प्रवेश के साथ ही इनका क्रान्तिकारी जीवन शुरु हो गया था। यहॉ इनकी मित्रता भगत सिंह, यशपाल, जयदेव गुप्ता और झंड़ा सिंह से हुई। वे सब भी इनकी तरह सशक्त क्रान्ति के समर्थक थे। ये पढ़ाई के बाद या कभी कभी पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह व अन्य साथियों के साथ संगठन के निर्माण की तैयारियाँ करते थे। बीच बीच मे वे अपने गाँव लायलपुर चले जाते थे, वहाँ इनके ताया जी ने इनके लिये आटे की चक्की लगवा दी थी ये कुछ समय उसका कार्य देखते और फिर वापस लाहौर आकर भगत के साथ भावी योजनाओं पर कार्य करने लगते।
इसी कार्य को आगे बढ़ाते हुये इन्होंने भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा के साथ 1926 में नौ जवान भारत सभा का गठन किया। ये हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कार्यशील सदस्य थे और पंजाब प्रान्त के नेता के रुप में कार्य करते थे। लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये जब साण्डर्स को मारने का निश्चय किया गया तो इन्होंने भगत सिंह और राजगुरु की पूरी सहायता की थी।
ये भगत सिंह के अन्तरंग मित्र थे और उनके सभी कार्यों में कदम से कदम मिलाकर सहयोग करते थे। ये भगत सिंह के परम हितैषी भी थे। ये संगठन के क्रान्तिकारी गतिविधियों के पीछे निहित उद्देश्यों को आम जनता के सामने स्पष्ट करने का समर्थन करते थे। इन्हें लाहौर षड़यंत्र के लिये गिरफ्तार करके जेल में रखा गया। उस समय भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ राजनैतिक कैदियों के अधिकारों लिये भूख हड़ताल की जिसमें सुखदेव भी शामिल हुये।
1928 की फिरोजशाह किले की बैठकः
सभी क्रान्तिकारियों को संगठित करने के उद्देश्य से भगत सिंह, सुखदेव व शिवशर्मा के प्रयासों से उत्तर भारत प्रान्त के क्रान्तिकारी प्रतिनिधियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह किले के खण्डरों में आयोजित की गयी। यह बैठक 8 या 9 सितम्बर 1928 को की गयी थी। इस बैठक में विभिन्न प्रान्तों में क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे क्रान्तिकारी शामिल हुये थे। जिसमें पंजाब से भगत सिंह और सुखदेव, बिहार से फणीन्द्रनाथ घोष व मनमोहन बैनर्जी, राजपूताना से कुन्दनलाल और युगप्रान्त से शिववर्मा, जयदेव, विजयकुमार सिन्हा, ब्रह्मदत्त मिश्र, सुरेन्द्र पाण्डेय के नाम प्रमुख है। चन्द्रशेखर आजाद इस बैठक में शामिल नहीं हो पाये थे पर उन्होंने आश्वासन दिया था कि जो भी निर्णय लिया जायेगा वे स्वीकार कर लेंगे। ये सभी युवा क्रान्तिकारी एक संगठन के आधार पर क्रान्ति का एक नया मार्ग अपनाना चाहते थे।
दिल्ली की बैठक में भगत सिंह और सुखदेव ने सभी प्रान्तों से प्रतिनिधि लेकर एक केन्द्रीय समिति बनाई और उस संयुक्त संगठन का नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी रखा। इसी सभा में सुखदेव को पंजाब प्रान्त का प्रतिनिधि संगठनकर्ता नियुक्त किया गया तथा साथ ही पंजाब में होने वाली सभी क्रान्तिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करने का उत्तरदायित्व दिया गया।
भगत सिंह को फरार करने में सहायताः
लाला लाजपत राय पर लाठी से हमला करने वाले जे. पी. साण्डर्स को गोली मारते समय भगत सिंह को एक दो पुलिसकर्मियों ने देख लिया था, इस कारण उन्हें लाहौर से फरार करने में बड़ी परेशानी हो रही थी। क्योंकि इस बात का भय लगातार बना हुआ था कि एक छोटी सी गलती होने पर भगत सिंह को गिरफ्तार किया जा सकता है। इस समय में सुखदेव ने भगत सिंह को लाहौर से बाहर भेजने में सहायता की।
भगत सिंह के भेष को बदलने के लिये उनके बाल काट दिये और उनकी दाड़ी भी साफ करा दी गयी। किन्तु इतना सब करने पर भी उन्हें पहचाना जा सकता था। अतः सुखदेव ने एक तरकीब निकाली और रात को करीब 8 बजे के आसपास दुर्गा भाभी (भगवती चरण वोहरा की पत्नी और क्रान्तिकारी संगठन की सहयोगी) के पास गये और सारी परिस्थिति को समझाकर कहा कि भगत को उसकी मेम साहिबा बनकर यहाँ से बाहर निकालना है। साथ ही यह भी बताया कि गोली चलने का भी भय है। दुर्गा भाभी मदद के लिये तैयार हो गयी और अगली सुबह 6 बजे कलकत्ता मेल से भगत को लाहौर से फरार करने में सफल हुये। पुलिस अधिकारी साण्डर्स को मारने वाले पुलिस फोर्स की नाक के नीचे से निकल गये और वे उन्हें छू तक न सके।
नाई की मंडी में बम बनाना सीखनाः
फरारी के जीवन के दौरान कलकत्ता में भगत सिंह की मुलाकात यतीन्द्र नाथ से हुई, जो बम बनाने की कला को जानते थे। उनके साथ रहकर भगत सिंह ने गनकाटन बनाना सीखा साथ ही अन्य साथियों को यह कला सिखाने के लिये आगरा में दल को दो भागों में बाँटा गया और बम बनाने का कार्य सिखाया गया। नाई की मंडी में बम बनाने का तरीका सिखाने के लिये पंजाब से सुखदेव व राजपूताना से कुंदनलाल को बुलाया गया। यहीं रहकर सुखदेव ने बम बनाना सीखा। इसी समय उन बमों का भी निर्माण किया गया था जिनका प्रयोग असेंम्बली बम धमाके के लिये किया गया था।
मित्र के लिये कर्तव्य का निर्वहनः
जिस समय असेंम्बली में बम फेंकने का निर्णय किया गया तो भगत सिंह के स्थान पर विजयकुमार सिन्हा और बटुकेश्वर दत्त का नाम निश्चित किय गया। जब यह निर्णय लिया गया उस समय सुखदेव केन्द्रीय समिति की बैठक में शामिल नहीं हो पाये थे। किन्तु इस निर्णय की सूचना उन तक पहुँचा दी गयी थी। इस सूचना को सुनते ही सुखदेव तुरन्त दिल्ली आ गये। भगत सिंह और सुखदेव में गहरी मित्रता थी। दोनों एक दूसरे पर अपनी जान न्यौछावर करने के लिये तत्पर रहते थे। वहाँ पहुँचते ही सुखदेव ने भगत सिंह से अकेले में पूछा कि सभा में बम फेंकने तुम जाने वाले थे, यह निर्णय क्यों बदला गया। भगत सिंह ने बताया कि समिति क निर्णय है कि संगठन के भविष्य के लिये मुझे पीछे रहने की आवश्यकता है।
सुखदेव से यह बर्दास्त न हुआ। इन्होंने कहा कि मैं तुम्हारा मित्र हूँ और तुम्हें अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुये नहीं देख सकता। तुम्हारा अंहकार बढ़ गया है। तुम खुद को दल का एकमात्र सहारा समइने लगे हो। तुम्हें नहीं पता तुम्हारा अन्त क्या होगा? एक ना एक दिन तो तुम्हें अदालत में आना पड़ेगा, तब तुम क्या करोगें जब जज तुम पर परमानन्द (भाई परमानन्द 1914-15 के लाहौर षड़यंत्र के सूत्राधार थे, किन्तु उन्होंने अपने अन्य साथियों को आगे कर यह कार्य पूर्ण किया। जब वे अदालत के सामने प्रस्तुत किये गये तब जज ने इन पर टिप्पणी की थी, यह आदमी कायर है, संकट के काम में दूसरों को आगे करके अपने प्राण बचाने की चेष्ठा करता है।) जैसी टिप्पणी करेगा। क्या उस समय तुम उस सत्य का सामना कर पाओंगे? क्या तुम खुद को देश पर मर मिटने के लिये तैयार रहने वाला कह सकोगे?
सुखदेव की इस तरह की बातें सुनकर भगत सिंह ने असेंम्बली में बम फेंकने जाने का पक्का निर्णय कर लिया। इस तरह सुखदेव ने अपने सच्चे मित्र होने के कर्तव्य को पूरा किया। सुखदेव जब दिल्ली से लाहौर पहुँचे तब उनकी आँखें सूजी हुई थी। ऐसा लगता था कि वे बहुत रोये थे। इसके बाद सुखदेव ने भगत सिंह से मिलने के लिये भगवती चरण वोहरा को दुर्गा भाभी के साथ बुलाया और भगत सिंह से इन सब की आखिरी मुलाकात कुदशिया बाग में हुई। इस मुलाकात में भगवती चरण, सुशीला दीदी, शची (शचीन्द्र वोहरा, भगवती चरण का बेटा) शामिल थे।
स्पष्टवादिताः
सुखदेव स्पष्टवादी थे। उनका मानना था कि चाहे जो भी कार्य किया जाये उसका उद्देश्य सभी के सामने स्पष्ट होना चाहिये। ये वहीं करते थे जो इन्हें उचित (ठीक) लगता था। यही कारण है कि जब साण्डर्स की हत्या की गयी तो इस हत्या के पीछे के उद्देश्यों को पर्चें लगा कर लोगों तक पहुँचाया गया। इनकी स्पष्टवादिता का प्रमाण इनके द्वारा गाँधी को लिखे गये खुले पत्र के द्वारा प्राप्त होता है। इन्होंने मार्च 1931 में गाँधी को एक पत्र लिखकर उनसे से उनकी नीतियों को जनता के सामने स्पष्ट करने के लिये कहा।
ये जानते थे कि गाँधी ने अंग्रेजों से जो समझौता किया है उसको बड़ी चतुराई से स्पष्ट करके भी स्पष्ट नहीं किया अर्थात् लोगों को ऊपरी तौर पर देखने पर लगता कि सब बातें स्पष्ट हैं, लेकिन यदि उनके समझौते का ध्यान से अध्ययन किया जाये तो वह समझौता बिल्कुल अस्पष्ट था। इसी विचार को ध्यान में रखते हुये उन्होंने गाँधी को पत्र लिखा। सुखदेव के जीवन के बारे में अध्ययन करके यह कहा जा सकता है कि वह स्पष्ट बोलने वाले थे और अपने कार्यों और उद्देश्यों के सम्बन्ध में सारी बातें स्पष्ट करते थे। उनके कार्यों के स्पष्टीकरण से इनके निश्चछल स्वभाव का पता चलता है।
सुखदेव की गिरफ्तारीः
सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र केस में गिरफ्तार किया गया। इसके बाद इन पर मुकदमा चला इस मुकदमें का नाम “ब्रिटिश राज बनाम सुखदेव व उनके साथी” था क्योंकि उस समय ये क्रान्तिकारी दल की पंजाब प्रान्त की गतिविधियों का नेतृत्व कर रहे थे। इन तीनों क्रान्तिकारियों (भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु) को एक साथ रखा गया और मुकदमा चलाया गया। जेल यात्रा के दौरान इनके दल के भेदों और साथियों के बारे में जानने के लिये पुलिस न इन पर बहुत अत्याचार किये, किन्तु उन्होंने अपना मुँह नहीं खोला।
1929 में राजनैतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में जब भगत सिंह ने भूख हड़ताल का आयोजन किया तो सुखदेव ने भी अपने साथियों का साथ देने के लिये भूख हड़ताल में भाग लिया। इन्होंने मरते दम तक अपनी दोस्ती निभाई। जब भी भगत सिंह को इनके साथ की आवश्यकता होती ये सब से पहले उनकी मदद करते थे तो इतने बड़े आन्दोलन में उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते थे। यदि भगत सिंह दल का विचारात्मक नेतृत्व करते और सुखदेव दल के नेता के रुप में कार्य करते थे। यहीं कारण है कि साण्डर्स की हत्या में सुखदेव के प्रत्यक्ष रुप से शामिल न होने के बाद भी इन्हें इनके दो साथियों भगत सिंह और राजगुरु के साथ फाँसी की सजा दी गयी। 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर सेंट्रल जेल में इन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया और खुली आँखों से भारत की आजादी का सपना देखने वाले ये तीन दिवाने हमेशा के लिये सो गये।
सुखदेव का जीवन-चक्रः
15 मई 1907 – पंजाव राज्य के लुधियाना शहर में जन्म।
धर्म व जाति – हिन्दू, ब्राह्मण (खत्री)।
1926 – भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा के साथ नौजवान भारत सभा का गठन।
8-9 सितम्बर 1928 – फिरोजशाह कोटला के मैदान में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की बैठक, हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखे जाने का सुझाव और इस संगठन के पंजाब प्रान्त के नेता के रुप में चयन।
17 दिसम्बर 1928 – जे. पी. साण्डर्स की हत्या करने में मदद।
20 दिसम्बर 1928 – भगत सिंह को लाहौर से फरार करने में मदद और इनके खिलाफ लाहौर षड़यंत्र के नाम से रिपोर्ट दर्ज हुई।
7 अक्टूबर 1930 – विशेष न्यायिक सत्र द्वारा साण्डर्स की हत्या करने की साजिश करने के जुर्म में भगत सिंह और राजगुरु के साथ फाँसी की सजा की घोषणा।
मार्च 1931 – गाँधी को उनकी नीति को जनता के सामने स्पष्ट करने के सन्दर्भ में पत्र।
23 मार्च 1931 – शहादत का दिन।