अस्पृश्यता विरोधी सप्ताह 2021 में शनिवार (2 अक्टूबर) से शुक्रवार (8 अक्टूबर) तक मनाया जायेगा।
अस्पृश्यता विरोधी सप्ताह (02-08 अक्टूबर से) समाज में जाति आधारित छुआछूत के बारे में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। प्रारम्भ में छुआछूत की भावना ऊँची जाति के लोगों द्वारा निम्न जाति अर्थात् दलितों के लिये बहुत अधिक थी। समाज में दलितों को ऊँची जाति के लोगों द्वारा अछूत माना जाता था और उनके साथ भेदभाव किया जाता था।
इसको देखते हुए अस्पृश्यता विरोधी सप्ताह अधिनियम संसद की विधायिका द्वारा साल 2011 में 24 मई को समाज में दलितों से भेदभाव की भावनाओं को दूर करने के लिए पारित किया गया। ये भारतीय समाज में सभी वर्गों के लिये समान अवसर प्रदान करने और देश को विकसित देश बनाने के लिये सरकार द्वारा उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है।
ये कार्यक्रम संसद की विधायिका द्वारा समानता के सिद्धान्त को दर्शाता है अर्थात् समाज में सभी मानव अधिकार और गरिमा के अर्थ में एक समान है। इस कार्यक्रम को घोषित करने के बाद भी देश ने बहुत सी असमानता और अन्याय की घटनाओं का सामना किया है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में दलितों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया है। इसलिये ये कहा जा सकता है कि ये कार्यक्रम दलितों के साथ भेदभाव के ऊपर प्रभावशाली एजेंडे के रुप में कार्य नहीं कर रहा इसलिये इसे एक अच्छी उपलब्धि नहीं कह जा सकता।
एक रिपोर्ट के अनुसार, ये उल्लेख किया गया है कि विभिन्न जिलों में कम से कम आधा दर्जन लोगों ने सिर्फ ऊँची जाति के लोगों की रसोई और पानी छूने के कारण अपना अस्तित्व ही खो दिया। दलितों के परिवार विस्थापित हो गये और अन्तर्जातीय विवाहित जोड़ों की दशा दयनीय हो गयी। उन्होंने अपने (दलितों के) अधिकारों और पहचान के लिये माँग करनी शुरु कर दी। दलित वर्ग के पीड़ितों को ऊँची जाति के लोगों द्वारा मारा-पीटा जाता है और उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी का रुप दे दिया गया है।
समाज में इस तरह के भयानक स्थिति के बाद, जल्द ही बड़े स्तर पर अस्पृश्यता से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। कथित तौर पर, ये उल्लेख किया गया है कि हाल के वर्षों (2012-13) में दलितों के खिलाफ (80%) हिंसा और क्रूरता की घटना जाति आधारित असहिष्णुता और अस्पृश्यता पर आधारित है। दलित सिविल सोसायटी के सदस्यों के साथ दलित अधिकार कार्यकर्ताओं ने जाति आधारित असमानता और अस्पृश्यता को दूर करने के लिए 12 दिन के राष्ट्रीय अभियान का आयोजन किया। इस अभियान के माध्यम से उन्होंने सरकार पर लिये गये निर्णयों को लागू करने के साथ ही साथ राजनीतिक पार्टियों और कानून प्रर्वतन इकाइयों का ध्यान आकर्षित करके दबाव डालने की कोशिश की है।
अस्पृश्यता के खिलाफ मजबूत और कठोर संवैधानिक कानून बनने के बजाय ये कानून लागू करने की अनिश्चतता के कारण अभी भी एक बड़े राष्ट्रीय मुद्दे के रुप में बनकर रह गया है। देश को छुआछूत-मुक्त बनाने के लिये देश के युवाओं का ध्यान आकर्षित करके युवा उन्मुखीकरण कार्यक्रम चलाने की जरुरत है। दलितों के लिये समान न्याय सुनिश्चित करने के साथ ही जाति आधारित असमानता को दूर करने के लिये सरकार से सशक्त नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिये दलित आधारित संगठनों का विशेष अनुरोध है।
दलित लोगों के लिए समान अधिकार दिलाने और अस्पृश्यता के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण बदलने के लिए राजनीतिक दलों के दलित और गैर-दलित नेताओं को संयुक्त रूप से काम करने की जरूरत है।
अस्पृश्यता के अभियान पर काम कर रहे सरकारी निकाय, दलित विकास समिति और राष्ट्रीय दलित आयोग हैं जिन्हें नियमों एवं कानूनों को दृढ़ता के साथ लागू करने की आवश्यकता है। दलित सिविल सोसायटी के सदस्यों ने लोगों को अस्पृश्यता और जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ जागरुक करने के साथ ही साथ अस्पृश्यता के खिलाफ सरकार को और अधिक कार्य करने का दबाव डालने के लिये 12 दिन लम्बा राष्ट्रीय अभियान शुरु किया है।
नेपाल में वर्ष 2006 में 4 जून को संसद द्वारा अस्पृश्यता-स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में घोषित किया गया है। यहाँ शोषित वर्ग और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लिये विशेष आर्थिक कार्यक्रम को लागू किया गया है। गांधी जी ने अस्पृश्यता के खिलाफ 1932 में सितंबर के महीने में यरवदा जेल में उपवास रखा था।
इस भयानक स्थिति को हटाने के लिये ऊँची और निम्न जाति के लोगों को पुराने क्रूर धार्मिक विश्वासों से स्वतंत्रत होने की जरुरत है। दलितों को आर्थिक स्वतंत्रता की आवश्यकता है जो जीवित रहने के लिये बहुत आवश्यक है। इस गहरी जड़ वाली समस्या के स्थायी समाधान के लिये समाज में सांस्कृतिक, सामाजिक और नैतिक परिवर्तन की जरुरत है। वो समाज में एक अच्छी शिक्षा, न्याय और पूर्ण अधिकार की अपेक्षा करते हैं।