भारत में प्राचीन समय से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। हिंदू धर्म में इस पर्व को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि प्राचीनकाल से ही सनातन धर्म में गुरु को ज्ञानदाता, मोक्षदाता तथा ईश्वर के समतुल्य माना गया। वेदों और पुराणों में गुरु को ब्रम्हा, विष्णु और महेश सा पूज्य माना गया है।
शास्त्रों में गुरु को अंधाकार दूर करने वाला और ज्ञानदाता बताया गया है। भारत में गुरु पूर्णिमा का पर्व हिंदू धर्म के साथ ही बुद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा भी मनाया जाता है। बुद्ध धर्म के अनुसार इसी दिन भगवान बुद्ध ने वाराणसी के समीप सारनाथ में पांच भिक्षुओं को अपना पहला उपदेश दिया था।
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वर्ष 2025 में गुरु पूर्णिमा का त्योहार 10 जुलाई, गुरुवार को मनाया जायेगा।
इस वर्ष, गुरु पूर्णिमा का त्यौहार मंगलवार, 16 जुलाई 2019 को मनाया गया था। यह भारत में मनाया जाने वाला एक प्रमुख आध्यात्मिक त्यौहार है, जो अकादमिक और आध्यात्मिक गुरुओं की याद में मनाया जाता है। यह त्योहार प्राचीन समय के सबसे प्रतिष्ठित आध्यात्मिक और अकादमिक गुरु-महर्षि वेद व्यास जी के सम्मान का प्रतीक है।
आम तौर पर, गुरु पूर्णिमा हिंदू कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ (जून-जुलाई) के महीने में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है; हालाँकि, यह वर्ष इस पर्व के लिए दुर्लभ था, क्योंकि इस वर्ष पुर्ण चंद्रग्रहण का योग बना था, जिसकी वजह से इस पर्व की महत्वता और खास हो गयी।
महर्षि वेद व्यास की पूजा समारोह का आयोजन मुख्य रूप से धार्मिक और शैक्षणिक संस्थानों में किया गया। दिन की शुरुआत पुजारियों और आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा धर्मोपदेश देने और लोगों को समाज के आध्यात्मिक और शैक्षणिक विकास में गुरु (शिक्षक) के महत्व के बारे में बताने से हुई।
देश भर के स्कूलों और कॉलेजों को महर्षि वेद व्यास के साथ-साथ अपने स्वयं के शिक्षकों की स्मृति में स्वतंत्र आयोजन करने के लिए निर्धारित किया जाता है। बच्चों ने अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान व स्नेह प्रकट करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए एवं आपने गुरुजनो को उपहार प्रदान कर उनका आशीष प्राप्त किया।
चूंकि गुरु पूर्णिमा का त्योहार हिंदुओं, जैनियों और बौद्धों द्वारा समान रूप से मनाया जाता है; अतः उल्लेखित धर्मों से संबंधित सभी धार्मिक स्थलों पर इस पर्व को बहुत ही धूमधाम से मनाया गया था।
बौद्ध अपने प्रथम आध्यात्मिक गुरु-गौतम बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए गुरु पूर्णिमा मनाते हैं। उत्तर प्रदेश के सारनाथ में विशेष कार्यक्रम का आयोजन किआ गया था, जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। इस आध्यात्मिक उत्सव का गवाह बनने के लिए भारी मात्रा में पर्यटक इस कार्यक्रम में शामिल थे।
भारत में गुरु पूर्णिमा के मनाये जाने का इतिहास काफी प्राचीन है। जब पहले के समय में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली हुआ करती थी तो इसका महत्व और भी ज्यादे था। शास्त्रों में गुरु को ईश्वर के समतुल्य बताया गया है, यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में गुरु को इतना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
गुरु पूर्णिमा मनाने को लेकर कई अलग-अलग धर्मों के विभिन्न कारण तथा सारी मान्यताएं प्रचलित है, परंतु इन सभी का अर्थ एक ही है यानी गुरु के महत्व को बताना।
ऐसा माना जाता है कि यह पर्व महर्षि वेदव्यास को समर्पित है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा के दिन आज से लगभग 3000 ई. पूर्व हुआ था और क्योंकि उनके द्वारा ही वेद, उपनिषद और पुराणों की रचना की गयी है। इसलिए गुरु पूर्णिमा का यह दिन उनकी समृति में भी मनाया जाता है।
सनातन संस्कृति में गुरु सदैव ही पूजनीय रहें है और कई बार तो भगवान ने भी इस बात को स्पष्ट किया है कि गुरु स्वंय ईश्वर से भी बढ़कर है। एक बच्चे को जन्म भले ही उसके माता-पिता देते है लेकिन उसे शिक्षा प्रदान करके समर्थ और शिक्षित उसके गुरु ही बनाते हैं।
पुराणों में ब्रम्हा को गुरु कहा गया है क्योंकि वह जीवों का सृजन करते हैं उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्यों का सृजन करते हैं। इसके साथ ही पौराणिक कथाओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने सप्तिर्षियों को योग विद्या सिखायी थी, जिससे वह आदि योगी और आदिगुरु के नाम से भी जाने जाने लगे।
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कई बार लोग सोचते है भारत तथा अन्य कई देशों में बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा गुरु पूर्णिमा का पर्व क्यों मनाया जाता है। इसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है क्योंकि आषाढ़ माह के शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही महात्मा बुद्ध ने वर्तमान में वाराणसी के सारनाथ में पांच भिक्षुओं को अपना प्रथम उपदेश दिया था।
यहीं पांच भिक्षु आगे चलकर ‘पंच भद्रवर्गीय भिक्षु’ कहलाये और महात्मा बुद्ध का यह प्रथम उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना गया। यह वह दिन था, जब महात्मा बुद्ध ने गुरु बनकर अपने ज्ञान से संसार प्रकाशित करने का कार्य किया। यहीं कारण है कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा भी गुरु पूर्णिमा का पर्व इतने धूम-धाम तथा उत्साह के साथ मनाया जाता है।
हिंदू तथा बौद्ध धर्म के साथ ही जैन धर्म में भी गुरु पूर्णिमा को एक विशेष स्थान प्राप्त है। इस दिन को जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा भी काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
जैन धर्म में गुरु पूर्णिमा को लेकर यह मत प्रचलित है कि इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने गांधार राज्य के गौतम स्वामी को अपना प्रथम शिष्य बनाया था। जिससे वह ‘त्रिनोक गुहा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसका अर्थ होता है प्रथम गुरु। यही कारण है कि जैन धर्म में इस दिन को त्रिनोक गुहा पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।
गुरु पूर्णिमा का दिन अन्य दिनों के अपेक्षा काफी महत्वपूर्ण होता है। प्राचीनकाल में इस दिन शिष्य अपने गुरु का आशीर्वाद प्रदान करने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के भेंट प्रदान किया करते थे और हरसंभव उनकी सेवा करने का प्रयास किया करते थे।
वैसे पहले के अपेक्षा आज के समय में काफी परिवर्तन हो चुका है फिर भी गुरु पूर्णिमा मनाने का एक विशेष तरीका है। जिसे अपनाकर हम गुरु पूर्णिमा का विशेष लाभ प्राप्त कर सकते है।
गुरु पूर्णिमा मनाने के विधि को लेकर शास्त्रों में वर्णन है कि इस दिन हमें सुबह स्नान करके पश्चात सर्वप्रथम भगवान विष्णु तथा शिवजी की पूजा करनी चाहिए और इसके पश्चात गुरु बृहस्पति, महर्षि वेदव्यास की पूजा करके अपने गुरु की पूजा करनी चाहिए।
इस दिन हमें अपने गुरु को फूलों की माला पहनानी चाहिए तथा मिठाई, नए वस्त्र और धन देकर उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। इसके साथ ही गुरु पूर्णिमा के दिन पूजा करते समय हमे इस बात का ध्यान देना चाहिए कि यदि इस दिन ग्रहण लग रहा हो तो हमें यह पूजा ग्रहण से पहले ही कर लेनी चाहिए।
पुराणों के अनुसार शिवजी ही सबसे पहले गुरु है, इसलिए गुरु पूर्णिमा के दिन उनकी पूजा अवश्य करनी चाहिए। वह शिवजी ही थे, जिन्होंने पृथ्वी पर सबसे पहले धर्म और सभ्यता का प्रचार-प्रसार किया था। यहीं कारण है कि उन्हें आदिगुरु भी कहा जाता है। शिवजी ने शनि और परशुराम जी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान की है।
इसके साथ ही वह योगसाधना के भी जनक है, जिसके कारणवश उन्हें आदियोगी के नाम से भी जाना जाता है। इस योग की शिक्षा को उन्होंने सात लोगो को दिया था, आगे चलकर यही सातों व्यक्ति सप्तर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहीं कारण है कि शिवजी को प्रथम गुरु या गुरुओं का गुरु भी माना जाता है।
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प्राचीनकाल के अपेक्षा में आज के गुरु पूर्णिमा मनाने के तरीके में काफी परिवर्तन हो चुका है। आज के समय में ज्यादेतर लोगो द्वारा इस पर्व को विशेष महत्व नही दिया जाता है। पहले के समय में लोगो द्वारा इस दिन को बहुत ही पवित्र माना जाता था और गुरुकुल परंपरा में इस दिन को एक विशेष दर्जा प्राप्त था, अब लोग इस दिन को मात्र एक साधरण दिन की तरह मनाते हैं और नाहि पहले के तरह गुरु की महत्ता में विश्वास रखते है।
यही कारण है, लोगो के अंदर गुरु के महत्व को लेकर जागरुकता दिन-प्रतिदिन कम होते जा रही है। यदि हम ज्यादे कुछ नही कर सकते तो कम से कम अपने गुरु का आदर तो कर ही सकते हैं और वास्तव में उनका सदैव सम्मान करके हम गुरु पूर्णिमा के वास्तविक महत्व को सार्थक करने का कार्य और भी अच्छे से कर सकते हैं।
शास्त्रों में गुरु को पथ प्रदर्शित करने वाला तथा अंधकार को दूर करने वाला बताया गया है। गुरु का अर्थ ही है अंधकार को दूर करने वाला क्योंकि वह अज्ञानता का अंधकार दूर करके एक व्यक्ति को ज्ञान के प्रकाश के ओर ले जाते हैं। बच्चे को जन्म भले ही उसके माता-पिता द्वारा दिया जाता हो, लेकिन उसे जीवन का अर्थ समझाने और ज्ञान प्रदान करने का कार्य गुरु ही करते है।
सनातन धर्म में मनुष्य को मोक्ष और स्वर्ग प्राप्ति बिना गुरु के संभव नही है। गुरु ही है जो एक व्यक्ति की आत्मा का मिलन परमात्मा से कराते है और उनके बिना यह कार्य दूसरा कोई नही कर सकता है। एक व्यक्ति को जीवन के इस बंधन को पार करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। यहीं कारण है कि हिंदू धर्म में गुरु को इतना महत्व दिया जाता है।
गुरु पूर्णिमा को मनाने और इसके इतिहास को लेकर कई सारे मत प्रचलित हैं। हिन्दु धर्म में इस दिन को लेकर दो कथाएं सबसे प्रचलित है।
महर्षि वेदव्यास की कथा
एक मान्यता के अनुसार आषाढ़ के शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था और वह वेद व्यास ही थे जिन्होंने हिंदू वेदों को उनके ज्ञान के आधार पर चार भागों में बांटा, इसके साथ ही उन्होंने महाभारत तथा 18 पुराणों की भी रचना की थी। जिससे पृथ्वी पर धर्म और ज्ञान में वृद्धि हुई, यही कारण है कि उनके जन्म दिवस को गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के रुप में मनाया जाता है।
आदियोगी शिवजी की कथा
गुरु पूर्णिमा के मनाये जाने को लेकर जो दूसरा मत प्रचलित है, वह योग साधना और योग विद्या से संबंधित है। जिसके अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव आदि गुरु बने थे, जिसका अर्थ प्रथम गुरु होता है। यह कथा कुछ इस प्रकार से है-
आज से लगभग 15000 वर्ष पहले हिमालय के उपरी क्षेत्र में एक योगी का उदय हुआ। जिसके विषय में किसी को कुछ भी ज्ञात नही था, यह योगी कोई और नही स्वयं भगवान शिव थे। इस साधरण से दिखने वाले योगी का तेज और व्यक्तित्व असाधारण था। उस महान व्यक्ति को देखने से उसमें जीवन का कोई लक्षण नही दिखाई देता था।
लेकिन कभी-कभी उनके आँखों से परमानंद के अश्रु अवश्य बहा करते थे। लोगो को इस बात का कोई कारण समझ नही आता था और वह थककर धीरे-धीरे उस स्थान से जाने लगे, लेकिन सात दृढ़ निश्चयी लोग रुके रहे। जब भगवान शिव ने अपनी आंखे खोली तो उन सात लोगों ने जानना चाहा, उन्हें क्या हुआ था तथा स्वयं भी वह परमानंद अनुभव करना चाहा लेकिन भगवान शिव ने उनकी बात पर ध्यान नही दिया और कहा कि अभी वे इस अनुभव के लिए परिपक्व नही है।
हालांकि इसके साथ उन्होंने उन सात लोगो को इस साधना के तैयारी के कुछ तरीके बताये और फिर से ध्यान मग्न हो गये। इस प्रकार से कई दिन तथा वर्ष बीत गये लेकिन भगवान शिव ने उन सात लोगों पर कोई ध्यान नही दिया।
84 वर्ष की घोर साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति में दक्षिणायन के समय जब योगीरुपी भगवान शिव ने उन्हें देखा तो पाया कि अब वह सातों व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के लिये पूर्ण रुप से तैयार है तथा उन्हें ज्ञान देने में अब और विलंब नही किया जा सकता था।
अगले पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने इनका गुरु बनना स्वीकार किया और इसके पश्चात शिवजी दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गये और इन सातों व्यक्तियों को योग विज्ञान की शिक्षा प्रदान की, यही सातों व्यक्ति आगे चलकर सप्तर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुए। यही कारण है कि भगवान शिव को आदियोगी या आदिगुरु भी कहा जाता है।
बौद्ध धर्म में गुरु पूर्णिमा की कथा
जब ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बने तो उन्होंने अपने पांच पुराने साथी मिले और महात्मा बुद्ध ने आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन इन पांच लोगो को वर्तमान के उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के समीप सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया, जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से भी जाना गया। यही कारण है कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा भी गुरु पूर्णिमा का यह पर्व मनाया जाता है।
जैन धर्म में गुरु पूर्णिमा की कथा
जैन धर्म में गुरु पूर्णिमा को लेकर यह मान्यता प्रचलित है कि इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने गांधार के इंद्रभुती गौतम को अपना पहला शिष्य बनाया था। जिसके वजह से उन्हें त्रिनोक गुहा के नाम से भी जाना गया, जिसका अर्थ होता है प्रथम गुरु और तभी से जैन धर्मावलम्बियों द्वारा इस दिन को त्रिनोक गुहा पूर्णिमा के नाम से भी जाने जाना लगा।