भारत के समाज सुधारक
किसी भी समाज में विविध और विभिन्न प्रकार के लोग रहते है; वे विभिन्न धर्म, जाति, रंग, लिंग और विभिन्न विश्वासों को मानने वाले हो सकते है। और उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे समाज से सामंजस्य बिठाएँ और बिना किसी भेदभाव के साथ रहे; आदर्श स्थिति तो तब मानी जाएगी जब समाज के सभी वर्गों में बराबरी, आजादी और भाईचारा हो।
हालाँकि, पूरी दुनिया का मानव समाज यह दिखाता है कि कई तरह के शोषणकारी कृत्य व्याप्त है हर जगह; यह शोषणकारी सोच समाज में मानव की सर्वोच्चता, सत्ता और शक्ति की लालच में जन्म लेती है; जैसे तथाकथित उच्च वर्ग के लोग तथाकथित निम्न वर्ग के लोगों का शोषण करेंगे; श्वेत अश्वेतों का शोषण करेगें; पुरुष महिलाओं का शोषण करेगें; एक धर्म को मानने वाला दूसरे धर्म को कमजोर या गलत बताता है और अपने धर्म को श्रेष्ठ बताता है आदि।
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ये भेद-भाव और शोषणकारी कृत्य लंबे समय के लिये सामाजिक बुराई का रुप ले लेता है और किसी भी सभ्य समाज के चेहरे पर धब्बे के समान हो जाता है। हर देश के उसके इतिहास में, कई सारे ऐसे चमकदार व्यक्तित्व होते है जो समाज के दबे-कुचले लोगों की प्रगति के लिये जीते और कार्य करते है। और उनके इन्हीं सार्थक प्रयासों से जातियता, सती प्रथा जैसे उच्च स्तर पर फैली सामाजिक बुराईयों को समाप्त करना मुमकिन हो पाया है।
इस लेख में हम भारत के महान समाज सुधारकों के बारे में पढ़ेंगे; इसके साथ ही हम लोग ये भी जानने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक बुराई और इसके कारक क्या है; और कौन सामाजिक सुधारक आदि है।
समाज सुधारक
समाज सुधारक कौन है? वो व्यक्ति जो मानवता और इंसानियत के प्रति किसी भी प्रकार से चिंतित हो; जो अच्छाई के लिये माहौल में बदलाव लाना चाहता हो; एक व्यक्ति जिसके पास प्रबुद्ध वैचारिक प्रक्रिया हो; वो व्यक्ति जो किसी कमजोर वर्ग के लोगों की पीड़ा को सहन नहीं कर सकता; और ऊपर दिये गये सभी व्यक्ति जो उनकी सेवा को अपना कर्तव्य मानते है तथा अपने बाद एक ऐसी धरती छोड़ना चाहते है जो पहले से बेहतर हो। वास्तव में एक समाज सुधारक एक आम इंसान होता है जो असाधारण तरीके से मानवता की सेवा करना चाहता है।
भारत सौभाग्यशाली है की कि उसके इतिहास में कई असाधारण इंसान हुए जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज की बेहतरी और दबे-कुचलें वर्ग के लोगों को ऊपर उठाने में लगा दिया। उनमें से कुछ आपके सामने प्रस्तुत है:
राजा राम मोहन रॉय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, डॉ भीम राव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, एनी बेसेंट, मदर टेरेसा, विनोबा भावे आदि। आधुनिक भारत बनाने के लिये हम इन असाधारण पुरुष और महिला समाज सुधारकों के जीवन और उनके कार्यों को देखेंगे और इनके प्रयासों का सराहना करेंगे।
19वीं शताब्दी के शुरुआत में, भारतीय समाज कई सारी सामाजिक बुराईयों से घिरा हुआ था जैसे सती प्रथा, जाति प्रथा, धार्मिक अंधविश्वास आदि। राजा राम मोहन रॉय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ऐसी अमानवीय प्रथाओं को पहचाना और इनके खिलाफ लड़ने का प्रण किया। इन्हें भारतीय पुनर्जागरण का शिल्पकार और आधुनिक भारत का पिता माना जाता है।
राम मोहन रॉय का जन्म बंगाल के हुगली जिले के राधानगर में 22 मई 1772 को हुआ तथा इनका संबंध पारंपरिक ब्राह्मण परिवार से था। इनके पिता रामाकांत रॉय और माता त्रिवानी रॉय थी; इनके पिता तब बंगाल के नवाब के न्यायालय में अच्छे पद पर थे। इन्होंने अपनी शिक्षा पटना और वाराणसी में पूरी की। 1803 से लेकर 1814 के समय तक इन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी में भी काम किया। राजा राम मोहन रॉय की शादी बेहद कम उम्र में ही हो गयी थी और 10 वर्ष की उम्र तक आते-आते ये तीन बार परिणय सूत्र में बंधे। 27 सितंबर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में इनका निधन हो गया।
कार्य और सुधार:
राजा राम मोहन रॉय बेहद खुले विचारों के थे साथ ही उनका दिमाग बहुत जिरह करने वाला था। वे पश्चिमी प्रगतिवादी सोच से बहुत ज्यादा प्रभावित थे तथा वे कई धर्मों के अध्यापन में भी बहुत निपुण थे। वे इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफ़ी दर्शनशास्त्र के तत्वों से, ईसाइयत की आचारनीति और नैतिकता से और उपनिषद् के वेदांता दर्शन से प्रभावित थे।
उनका मुख्य उद्देश्य उन बुराईयों को मिटाने की ओर था जो हिन्दू समाज के चारों ओर फैली हुई थी जैसे:
जब इनके बड़े भाई की मृत्यु होने पर इनकी भाभी को सती कर दिया गया था, इस घटना ने इनके मस्तिष्क पर बहुत गहरा असर डाला, तब राजा राम मोहन रॉय ने इसके खिलाफ लड़ने का निश्चय किया। इस क्रूर प्रथा को खत्म करने के लिये उन्होंने एक आंदोलन की शुरुआत की और साथ ही ब्रिटिश सरकार को इसके खिलाफ कानून बनाने के लिये राजी कर लिया। उस समय के गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेन्टिक द्वारा 1829 में बंगाल सती प्रथा रेग्युलेशन एक्ट पारित हुआ।
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दूसरे महत्वपूर्ण कार्य:
समाज के लिये राम राम मोहन रॉय का योगदान
आधुनिक भारत का विचार पहली बार राजा राम मोहन रॉय के कार्य और प्रयासों ने दिया जो चिरकालीन ब्रिटिश शोषण और सामाजिक बुराई के दोहरे बोझ के तहत घूम रहा था। शायद भारत के स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष की ताजा शुरुआत राजा राम मोहन के आधुनिक विचारों को फैलाने से हो चुकी थी। इस वजह से आधुनिक भारत को बनाने में उनका योगदान आधारशिला की तरह है।
12 जनवरी 1863 को भारत के कोलकाता में विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के यहाँ एक अद्भुत बालक विवेकानंद का जन्म हुआ। इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था।
बचपन के दिनों से ही नरेन्द्र बेहद होनहार विद्यार्थी थे; इनकी चेतना और पढ़ने की क्षमता असाधारण थी; नरेन्द्र अतिलोलुप पाठक थे।
वे एक प्रतिभावान विद्यार्थी थे जो सभी प्रकार के विषयों में रुचि रखते थे जैसे दर्शनशास्त्र, जीव-विज्ञान, कला, संस्कृति, संगीत, और सामाजिक विज्ञान आदि। विवेकानंद खासतौर से दर्शनशास्त्र और धार्मिक विषय वस्तु में ज्यादा रुचि लेते है; विवेकानंद पश्चिमी विचारकों और दर्शनशास्त्रियों जैसे काँट, हीगल, जॉन स्टूअर्ट मिल, अगस्त कॉम्टे, स्पेनोजा हरबर्ट स्पेंसर और चार्ल्स डारविन आदि को अति उत्सुकता से पढ़ते थे। वे हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक और दार्शनिक विषय-वस्तु में भी दक्ष थे चाहे वे उपनिषद्, वेद, रामायण या महाभारत हो।
इन सभी अध्ययन ने इनको एक जिज्ञासु व्यक्ति बनाया। उनकी सत्य और ज्ञान को जानने की इच्छा ही उनको स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास ले गयी और नरेन्द्रनाथ स्वामी विवेकानंद में परिवर्तित हो गये।
सामाजिक सुधार:
यद्यपि विवेकानंद ने किसी सामाजिक सुधार की शुरुआत नहीं की लेकिन उनके भाषण और लेख सभी प्रकार के सामाजिक और धार्मिक बुराईयों के खिलाफ संदेश देते थे।
आगे उनके जोशीले भाषण और व्याख्यानों ने स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन के लिये गति दी और उनका जीवन तथा अध्यापन आज भी देश के युवाओं के लिये प्रेरणा का स्रोत है। स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 4 जुलाई 1902 को भारत के बंगाल के बेलुर मठ में ध्यान के दौरान हो गयी थी।
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स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था; इनका जन्म गुजरात के मौरवी में 12 जनवरी 1824 को हुआ था। 21 साल की उम्र में इन्होंने अपना घर छोड़ दिया और दंडी स्वामी पूर्णांनंदा के साथ भ्रमण पर निकल गये जिन्होंने इनको मूलशंकर से स्वामी दयानंद सरस्वती नाम दिया।
सामाजिक सुधार:
स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों के अध्यापन में बहुत भरोसा रखते थे; इन्होंने एक नारा दिया था: ‘वेदों की लौटों’। मूर्तिपूजा और दूसरे अंधविश्वासों को फैलाने के लिये इन्होंने हिन्दू धर्म की विषय-वस्तु ‘पूरन’ की खिलाफत की है। वो हिन्दू धर्म के नाम पर जारी सभी गलत चीजों के खिलाफ बहस करते थे तथा हिन्दू दर्शन को पुन: प्रचारित करने का प्रयास करते थे।
वो बेहद आक्रमकता से सभी सामाजिक बुराईयों जैसे जाति प्रथा आदि का विरोध करते थे लेकिन उनका मानना था कि ये पेशे और कार्य के आधार पर होना चाहिये। वो महिलाओं कीr शिक्षा के अधिकार तथा समान सामाजिक स्थिति के समर्थक और हिमायती थे साथ ही उन्होंने अस्पृश्यता और बाल विवाह आदि के खिलाफ अभियान भी चलाया। वो अंतर्जातिय विवाह और विधवा विवाह के समर्थक थे साथ ही शूद्रों और महिलाओं को वेदों को पढ़ने तथा उच्च शिक्षा की आजादी के भी समर्थक थे।
अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिये स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उनका मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म को प्रचारित करना और उनमें सुधार करना तथा सच्चे रुप में वैदिक धर्मों की पुर्नस्थापना करना था। भारत को सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक तौर पर एक समान करना तथा भारतीय सभ्यताओं और संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव पड़ने से रोकना।
हालाँकि आर्य समाज के सभी अच्छे कार्यों के बावजूद वो अपने शुद्धी आंदोलन को लेकर विवादित भी हो गये थे जिसके तहत जो व्यक्ति दूसरे धर्मों में चला गया है वो हिन्दू धर्म में फिर से लौट सकता है।
लेकिन इन सबके बावजूद भी भारत की सामाजिक बुराईयों खासतौर से हिन्दू धर्म के अन्दर की बुराई को हटाने में इनका बहुमूल्य योगदान है; ये भारतियों को गर्व का अनुभव कराते है, एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी जी एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने यह घोषणा की थी कि “भारत भारतियों के लिये है”।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर 19वीं सदी के असाधारण समाज सुधारकों में से एक थे। इनका जन्म 26 सितंबर 1820 में बंगाल के पश्चिम मिदनापुर में ठाकुरदास बंधोपाध्याय और भगवती देवी के यहाँ हुआ था।
इनका बचपन बेहद गरीबी में बिना आधारभूत सुविधाओं के बीता। लेकिन विद्यासागर एक होनहार छात्र थे; वो हमेशा सड़कों की रोशनियों में पढ़ा करते थे क्योंकि उनके घर में रोशनी नहीं थी। स्कूल और कॉलेजों में असाधारण प्रदर्शन करने की वजह से उन्हें ढेर सारी छात्रवृत्ति प्राप्त हुई थी; साथ ही अपनी और अपने परिवार की मदद के लिये वो अंशकालीन अध्यापन भी किया करते थे। कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज से विद्यासागर ने साहित्य, संस्कृत व्याकरण, कानून और खगोल विद्या की पढ़ाई की।
विद्यासागर बहुत ही हिम्मती समाज-सुधारक थे जो किसी भी सामाजिक बुराई के खिलाफ लड़ने से नहीं घबराते थे।
समाज सुधार:
18 जुलाई 1891 में कलकत्ता में इनकी मृत्यु हो गयी।
ज्योतिराव गोविन्दराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा में एक सब्जी विक्रेता परिवार में हुआ था। पारिवारिक गरीबी के कारण ये अपनी शिक्षा को पूरा नहीं कर पाये लेकिन बाद में वे कुछ व्यक्ति जिन्होंने इनके अंदर की क्षमता को पहचान लिया था उनकी, मदद से इन्होंने अपनी शिक्षा को पूरा किया।
12 साल की उम्र में ज्योतिराव का विवाह सावित्रिबाई फुले से हुआ। इनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन तब आया जब इन्हीं के एक ब्राह्मण मित्र द्वारा इनका अपमान किया गया तब ज्योतिबा फुले को समाज में व्याप्त जाति विभाजन और भेदभाव के बारे में पता चला।
फिर इन्होंने समाज में फैली और बुराईयों को महसूस किया और इन सबके खिलाफ लड़ने की ठानी। थॉमस पैने के द्वारा लिखी गयी पुस्तक, ‘पुरुषों के अधिकार’ ने इनको सामाजिक बुराई जैसे जातिवाद, अस्पृश्यता, महिलाओं की दयनीय दशा, किसानों की बुरी हालत आदि के खिलाफ आंदोलन करने की ओर आगे बढ़ाया।
ज्योतिबा फुले के कार्य और सामाजिक सुधार:
इसलिये ज्योतिबा फुले ने अपना पूरा जीवन समाज के कमजोर और पिछड़ों के लिये दे दिया; अपने विचार और कार्यों की वजह से वो अपने समय में बहुत आगे थे।
14 अप्रैल 1891 को भारत के तब के केन्द्रीय प्रान्त के मिलिट्री कैंटोमेण्ट के एक कस्बे महो में हुआ था। ये बाबा साहेब के नाम से भी प्रसिद्ध थे। इनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में एक सूबेदार थे और माँ भीमाबाई एक गृहणी थी।
बाबा साहेब का संबंध तथाकथित महार जाति से था जिनसे अस्पृश्यों की भाँति बर्ताव किया जाता था; बचपन से ही वो कई प्रकार के सामाजिक भेदभाव को झेल रहे थे; लेकिल समाज से तमाम भेदभाव के बावजूद भी इनके पिता सेना में होने के नाते अपने बच्चों को एक अच्छी शिक्षा दिलाने की क्षमता रखते थे।
अंबेडकर को दूसरे दलित बच्चों की तरह स्कूल में अस्पृश्यों की भाँति बर्ताव किया जाता था; ये तथाकथित उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे; ना ही उन्हें एक ही नल से पानी पीने की आजादी थी।
अंबेडकर पढ़ने में बहुत ही अच्छे थे तथा अपनी शुरुआती शिक्षा बॉम्बे (मुम्बई) से लेने के बाद उच्च शिक्षा और शोध के लिये अमेरिका गये; अंबेडकर साहब ने अपने स्नाकोत्तर और शोध को न्यू यार्क शहर के कोलंबिया विश्वविद्यालय से पूरा किया किया इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिये लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़े तथा अपने मास्टर्स और डॉक्टरेट की डिग्री भी यहीं से प्राप्त की।
अंबेडकर साहब का कार्य और सामाजिक सुधार:
अत: तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी डॉ भीमराव अंबेडकर ने दुनिया के बेहतरीन संस्थानों से अपने प्रतिभा और योग्यता के बल पर बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने कानून की डिग्री भी प्राप्त की।
इसलिये वो पूरे जीवन भर हमारे देश की सामाजिक बुराईयों के खिलाफ सामाजिक के साथ राजनीतिक जंग जारी रखी; उनका मुख्य योगदान दबे-कुचले लोगों को आत्म-सम्मान की ओर पहुँचाना था।
भारत में जन्में वो वाकई महान इंसानों में से एक थे। 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में मधुमेह की लंबी बीमारी की वजह से उनका देहांत हो गया।
बाबा आम्टे आधुनिक भारत के बेहद प्रतिष्ठित समाज सुधारकों में से एक थे; इनके पिता देवीलाल सिंह और माता लक्ष्मीबाई आम्टे थी। इनके बचपन का नाम मुरलीधर था और इनका जन्म 26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में हुआ था।
इनके पिता ब्रिटिश सरकार में उच्च पद पर तैनात थे इस वजह से वो एक धनी परिवार से थे और अपने युवा अवस्था के दिनों में एक आलीशान जीवन जी रहे थे। लेकिन बाबा आम्टे बेहद उदारवादी थे और सभी धर्म और जाति के लोगों के साथ रहते थे।
उन्होंने कानून की पढ़ाई की और इनका वर्धा में बहुत अच्छा जीवन था। वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई आंदोलनों का हिस्सा बने जिसका नेतृत्व गाँधी जी कर रहे थे। बाबा आम्टे गाँधी जी से बेहद प्रभावित थे और अपने जीवन में उनके सिद्धांतों और जीवन जीने के तरीकों का अनुसरण करते थे।
कार्य और सुधार:
इसलिये उन्होंने अपना सारा जीवन भारत और समाज कल्याण में लगा दिया। 9 फरवरी 2008 को महाराष्ट्र के आनन्दवन में इनका निधन हो गया।
आचार्य विनोबा भावे आधुनिक भारत के महत्वपूर्ण मानवतावादी और समाज सुधारकों में से एक रहे है। इनका जन्म महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के गागोड़े गाँव में ब्राह्मण परिवार में नरहरी शंभु राव और रुकमनी देवी के यहाँ 11 सितंबर 1895 में हुआ था। इनका वास्वतिक नाम विनायक राव भावे था तथा ये भगवत गीता से काफी प्रेरित थे।
इनका आध्यात्म की ओर काफी झुकाव था और सभी धर्मों की अच्छाई में भरोसा रखते थे।
विनोबा भावे गाँधी के भाषणों से प्रेरित थे और अहमदाबाद में उनसे जुड़ गये तथा उनके रचना संबंधी कार्यक्रम जैसे अध्यापन, साफ-सफाई और खादी को प्रचारित करने में लग गये।
कार्य और सुधार:
आचार्य विनोबा भावे का निधन महाराष्ट्र के वर्धा में 15 नवंबर 1982 को हुआ। अपने पूरे जीवन भर वे गाँधी के सिद्धांतों पर चलते रहे और समाज की सेवा की।
“संख्या के बारे में कभी चिंता न करें, एक समय में एक व्यक्ति की मदद करो और शुरुआत अपने करीबी से करो”।
जैसा कि ऊपर कहा गया हम उनके गरीब, असमर्थ और जरुरत मंद लोगों के एहसास को जानने के लिये आये है। इस महान महिला का जन्म 26 अगस्त 1910 को मैसीडोनिया के स्कोपजे में हुआ था। इनका नाम एंजेज झोंजे बोजाक्यू पड़ा जो रोमन कैथेलिक धार्मिक सिस्टर थी। इनके माता पिता का नाम निकोले बोजाक्यू तथा ड्रैनाफाइल बोजाक्यू था। इन्होंने अपनी शिक्षा रैथफैरम (1928-1929) के लौरेटो एब्बे और ब्लेस्ड वरजिन मैरी संस्थान से पूरी की।
अपने 12 साल के बहुत ही छोटी उम्र से ही इन्होंने एक धार्मिक आवाज का एहसास किया। 18 साल की उम्र में इन्होंने नन बनने का फैसला लिया और डबलिन के लौरेटो सिस्टर से जुड़ी। यहाँ पर इनको नया नाम मिला मैरी टेरेसा कई वर्षों तक यहाँ काम करने के बाद ये भारत के दार्जीलिंग में यात्रा करने आयी। वहाँ से वो कलकत्ता गयी और वहाँ के सेंट मैरी हाई स्कूल में पढ़ाने लगी। ये स्कूल शहर के गरीब बंगाली परिवार के लड़कियों के लिये समर्पित था। 6 साल तक यहाँ कार्य करने के बाद 24 मई 1937 को इन्हें लौरेटो नन की परंपरा के रुप में ‘मदर’ की उपाधि दी गयी और इसके बाद उनको “मदर टेरेसा” के रुप में दुनिया ने जाना। अगस्त 1948 में इन्होंने लौरेटो कॉन्वेंट को छोड़ दिया और भ्रमण पर निकल गयी। इसके बाद इन्होंने 6 महीने की डॉक्टरी शिक्षा ली और अपना पूरा जीवन कलकत्ता के अस्पृश्यों, अनचाहे और अप्रिय लोगों के लिये दे दिया।
सामाजिक सेवा:
मदर टेरेसा ने अपना पूरा जीवन समाज के जरुरतमंद और गरीब लोगों के लिये समर्पित कर दिया। इन्होंने 1948 में भारत (कलकत्ता) से अपने मिशन की शुरुआत की। वो भारत के गरीब और जरुरतमंद लोगों की मदद के लिये विभिन्न धर्मों और जाति के लोगों को साथ ले आने में सफल हुई।
निम्न जाति और अस्पृश्य लोग जो डॉक्टर और वैद्य आदि के द्वारा नहीं छुए जाते तथा अपनों के द्वारा सेवा नहीं दिये जाने पर दवा के अभाव में उनकी मौत हो जाती थी। शहर के गरीब लोगों की स्थिति देखने के बाद उन्होंने एक स्कूल खोलने का फैसला किया और संक्रामक बीमारियों के डर से परिवार द्वारा छोड़ दिये गये लोगों के लिये एक घर बनाया। वर्ष 1950 में सिर्फ 12 लोगों से मिलकर इन्होंने “चैरिटी ऑफ मिशनरीस” की स्थापना की।
वो गरीबों में गरीब, कमजोर और मरने वाले लोगों की सेवा करती थी। मदर टेरेसा और उनके संस्था के लोग सड़कों पर निकलते थे और ऐसे लोगों को उठाते थे जिनके परिवारों ने उनको छोड़ दिया है। वो उनके जीवन की सारी जरुरतें पूरे करना चाहती थी जिससे वो अपने जीवन के आखिरी पल तक सम्मान के साथ जी सकें। सड़कों पर रहने वाले बच्चों के लिये मदर टेरेसा ने ऐसे 20 मिशनरी घर बनाये। मानवता के लिये दिये गये उनके बहुमूल्य योगदान के लिये 1979 में उन्हें नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया और 1980 में भारत में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 87 साल की उम्र में 5 सितंबर 1997 को इनकी मृत्यु हो गयी।