“परोपकार घर से आरंभ होती है” इस कहावत का मतलब है कि पहले अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करो उसके बाद पुण्य के लिए बाहर वालों की मदद करो। इस बात का कोई मतलब नहीं बनता है कि आप बाहरियों की मदद करते फिरें जबकि आपके अपके घर में ही ऐसे लोग हैं जिन्हें मदद की आवश्यकता है। दूसरों की मदद करना अच्छी बात है मगर ऐसा तब ही करना चाहिए जब आपके खुद के घर में सब कुछ बेहतर हो।
किसी भी कहावत का सही मतलब समझने के लिए उदाहरण सबसे बेहतर तरीका होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं इस कहावत “परोपकार घर से आरंभ होती है” पर आधारित कुछ ताजा उदाहरण आपके लिए लेकर आया हूँ, जो आपका ज्ञान और जानकारी बढ़ाएगा।
“मेरे पड़ोस में रहने वाला एक परिवार, खुद के महीने भर का राशन रखने के बाद जो भी बचता है उसे गरीबों में बाँट देते हैं। वास्तव में, वे इस बात पर यकीन करते हैं कि परोपकार घर से आरंभ होती है।”
“राकुल को अपनी दोस्त को किताबें नही देनी चाहिए थी जब परीक्षा के समय उसे खुद उसकी जरूरत थी। उसे पता होना चाहिए कि परोपकार घर से आरंभ होती है।”
“प्रधानमंत्री ने आदेश दिया कि विदेशी नागरिकों से पहले हमारे देश के नागरिकों को निकाला जाये। यद्यपि वो इस बात में भरोसा करते हैं कि परोपकार घर से आरंभ होती है।”
“सबसे पहले गाय के बछड़े को दूध पिलाया जाता है और तब उसके बाद ग्वाला उसका दूध लेता है। यहाँ तक कि गाय खुद भी यह समझती है कि परोपकार घर से आरंभ होती है।”
इस कहावत से मिलते जुलते अर्थ वाला ही एक वाक्यांश किंग जेम्स बाइबिल में पाया जाता है, जो ईसाई बाइबिल का 1611 अंग्रेजी अनुवाद था। किंग जेम्स बाइबिल ने बताया था कि वह व्यक्ति जो अपने खुद के परिवार के लिए जरूरी चीजें नहीं जुटा सकता वह भरोसे के काबिल नहीं है और ऐसे व्यक्ति के लिए विश्वास कोई मायने नहीं रखता है।
इस कहावत के इस्तेमाल का एक और वाकया वर्ष 1382 में जॉन विक्लिफ, एक अंग्रेजी दार्शनिक द्वारा सामने आता है। विक्लिफ़ ने लिखा था – “परोपकार की शुरुआत खुद से करनी चाहिए।”
बाद में 17वीं शाताब्दि में, एक अंग्रेजी कवि जॉन मैरस्टन ने इस कहावत को एक नाटक हिस्ट्रियो- मास्टिक्स में इस्तेमाल किया था। इस नाटक की पहली लाइन थी “सच्चे परोपकार की शुरुवात अपने घर से ही होती है।”
“परोपकार घर से आरंभ होती है” इस कहावत का मतलब है कि किसी को भी दूसरों के लिए परोपकार करने से पहले खुद के परिवार और रिश्तेदारों की जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए। इस कहावत में परोपकार का अर्थ किसी तरह की मदद, चाहे धन सम्बंधित हो या फिर खाना, रहना, आदि से सम्बंधित हो सकता है। चाहे कुछ भी हो, यह कहा गया है कि कोई भी पहले अपने खुद के परिवार का ख्याल रखे और उसके बाद दूसरों की परवाह करने के लिए आगे बढ़े।
मुसीबत के वक़्त उन लोगों की मदद करने का कोई मतलब नहीं बनता है जब आपके खुद के परिवार को आपकी काफी ज्यादा जरूरत हो। वह परोपकार जिसे आपको, आपके परिवार की खुशियों के साथ समझौता कर के, करना पड़े वह पूरी तरह से बेकार है। सबसे पहले आप अपनी खुद के परिवार की परवाह कीजिये उसके बाद दूसरों की मदद कीजिये।
इस कहावत का महत्त्व ये हैं की यह हमें सिखाता है कि हमारा परिवार ही हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें दूसरों की मदद करने से पहले अपने परिवार के लोगों की मदद करनी चाहिए। व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाये तो, यह हमें सिखाता है कि सबसे पहले हमें अपने सबसे नजदीक के लोगों या उनके लिए जिनके लिए हम तत्काल जवाबदेह होते हैं उनकी समस्याओं को सुलझाना चाहिए।
उदाहरण के लिए, एक शिक्षक को अपने कक्षा के लिए ज्यादा चिंतित रहना चाहिए ना कि अन्य कक्षाओं के लिए। एक माँ की सबसे पहली जिम्मेदारी होती है अपने बच्चों का पेट भरना, उसके बाद वो बाकियों को खिलाने के बारे में सोच सकती है। इसी तरह से यह कहावत हमें जीवन में कई व्यावहारिक स्थितियों के साथ तमाम सबक सिखाता है।
किसी कहावत के नैतिक गुण को समझने के लिए कहानी सबसे बेहतर माध्यम होती है। आज मैं आपके लिए कुछ कहानियां लेकर आया हूँ ताकि आप “परोपकार घर से आरंभ होती है” कहावत का सही-सही मतलब समझ सकें।
लघु कथा 1 (Short Story 1)
एक बार की बात है, एक गरीब पुजारी भारत के एक गाँव में रहता था। वो अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। उसे सिर्फ उतना ही मिल पाता था जिससे की उसके परिवार के चार लोगों का घर चल सके, लेकिन वह ह्रदय से एक परोपकारी व्यक्ति था और काफी मात्रा में अनाज आदि दान कर चुका था। उसका मानना था कि भगवान एक दिन उसके इन अच्छे कर्मों को देखेंगे और इसका इनाम भी देंगे। पुजारी की पत्नी अपने पति के इस दान-पुण्य से कुछ खास खुश नहीं रहती थी क्योंकि उसका मानना था कि इस तरह से अन्न का दान करने का कोई अर्थ नहीं है जब उसके खुद के बच्चों को रात में भूखे सोना पड़े। उसने पुजारी की इस आदत को कई बार बदलने की कोशिश की मगर सब बेकार था।
एक बार ऐसा हुआ कि पुजारी के छोटे बेटे की तबियत ख़राब हो गयी। वजह ये थी कि वो कई कई बार भूखे पेट ही सो जाया करता था, जिसकी वजह से उसकी आँतों को काफी गंभीर नुकसान पहुंचा था। पुजारी एकदम से हिल गया और उसका ह्रदय टूट गया। वह भगवान से पुछा – क्यों भगवान क्यों? आपने मेरे ही परिवार को इस मुश्किल में क्यों डाल दिया जबकि मैं दूसरों की मदद करता था और जितना मैं कर सकता था उससे भी कहीं ज्यादा कई परोपकारी काम भी किया। उसे कोई जवाब नही मिला और फिर वो सोने चला गया।
उस रात पुजारी के सपने में भगवान आये और उससे बोले – पुत्र, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं तुम्हे और तुम्हारे परिवार को प्यार करता हूँ। मैं तुम्हारा या तुम्हारे चहेतों का कोई भी नुकसान नहीं चाहता हूँ। मगर जो तुम्हारे बेटे के साथ हुआ है उसके लिए तुम ही जिम्मेदार हो, मैं नहीं। तुम दूसरों को अन्न दान करते रहे जबकि तुम्हारा अपना ही बेटा भूखे पेट सोता था। क्या इसका कोई अर्थ निकलता है? तुम्हे यह पता होना चाहिए पुत्र कि “परोपकार घर से आरंभ होती है”! अभी भी वक़्त है, कल अपने बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाओ, पहले अपने परिवार का पेट भरो उसके बाद दूसरों का। बाकियों का मैं ध्यान रख लूँगा।” ऐसा कहने के बाद भगवान उसके सपने से गायब हो गए।
अगली सुबह पुजारी जब उठा तो वह एक बदला हुआ इन्सान था। सबसे पहले वह अपने बेटे को डॉक्टर के पास ले गया और उसके बाद वह तमाम तरह के परोपकार वाले सभी कार्यों को रोक दिया और सिर्फ उतना ही दान करता जितना कि उसके परिवार की जरूरत के बाद बचता था। उसका बेटा भी जल्दी ही स्वस्थ्य हो गया जिसके बाद पुजारी भी समझ गया की “परोपकार घर से आरंभ होती है।”
लघु कथा 2 (Short Story 2)
एक बार एक स्कूल में एक बहुत ही ज्यादा अनुशासक शिक्षक थे। वे अक्सर ही खेल के मैदान में खेलते बच्चों को पकड़ लेते थे और उन्हें डांटते और सबक सिखाते थे और दूसरों को परेशान नहीं करने को कहते। बच्चे उन्हें जरा भी पसंद नही करते थे और उनसे डरते भी थे। एक दिन उन्होंने एक बच्चे को कक्षा में खेलने और शोर मचाने पर थप्पड़ मार दिया। बच्चे के माता पिता इस बात से काफी नाराज थे और उन्होंने यह तय किया कि अव्यवस्थित रूप से अनुशासन दिखाने वाले उस टीचर से वो मिलेंगे।
बच्चे के माता पिता टीचर के घर गए। यहाँ, आते ही उनके सामने एकदम पूरी तरह से बदला हुआ नजारा दिखा। उन्होंने देखा, शिक्षक के दो बच्चे हैं, जो पूरी दुनिया भर का शोर मचा रहे थे, चिल्ला रहे थे, तमाम तरह की चीजें कर रहे थे। सबसे जायदा हैरान करने वाली बात तो ये थी कि टीचर शांति से कुर्सी पर बैठा हुआ था और असहाय की भांति चिल्ला रहा था और बच्चों को शोर नहीं मचाने को कह रहा था। जैसा की बच्चे के माता पिता उम्मीद कर रहे थे ये उसके ठीक विपरीत था। उन्होंने सोचा था कि टीचर एक बहुत ही अनुशासित व्यक्ति होंगे, उनका घर किसी शांत मकबरे की तरह होगा। मगर ये किसी भी तरह से शांत नही था और ऐसा लग रहा था कि यहाँ पर स्थिति उनके नियंत्रण से पूरी तरह बाहर थी।
खैर, टीचर ने बच्चे के माता पिता का स्वागत किया और उनसे यहाँ आने का कारण पूछा। तब बच्चे के पिता ने कहा, सर, आप अनुशासन पसंद करते हैं, स्कूल में बच्चों को थप्पड़ मारते हैं। मगर, अपने घर को देखिये, मैं आपको सलाह दूंगा कि सबसे पहले आप अपने घर में अनुशासन का ध्यान रखें, जैसा की आप जानते है, परोपकार घर से आरंभ होती है।
शिक्षक निशब्द था, उसे नहीं पता की क्या जवाब दे। उस दिन के बाद से वो स्कूल में बच्चों के बजाय अपने घर के बच्चों को अनुशासन सिखाना शुरू कर दिया। वास्तव में, परोपकार घर से आरंभ होती है।